Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ ३७४ । समगाज्यहाँ ति, तेण वि य अम्हे । तो असंभावणीयागमणसंकेण' निरूविया कंचि कालं, विहसियंच अम्हेहिं । तो पञ्चभिन्नाया अम्हे । पणमिऊण हरिसविसायगन्भिणं जपियं तेण-कुमार, अवि कुसलं महारायस्स। मए भणियं-'कुसलं'। नीया तेण सगिहं। कओणे विभवपोइसरिसो उवयारो। भुत्तुरकालम्मि पुच्छिओ आगमणपओयणं । तायनिव्वेएण विणिग्गओ, सोहलेसरनियमाउलसमीवं गमिस्सामि' ति साहिऊण सबहमाणं भणिओ य एसो-'सीहल दीवगामिवहणोवलंभे अवहिएण' होयव्वं ति । मणोरहदत्तण भणियं - कुमारो आणवेइ । अइक्कंतो कोइ कालो। पीइलंधियो विओयभीरत्तणेण न साहेइ णे उवलद्धं पि सोहलदीवगामियं वहणं । अन्नया य मुणिउण अम्हाणमूसूयत्तणं भणियमणेण-कुमार, किमवस्समासन्नमेव गंतव्वं कुमारेण । मए भणियं-वयंस, पओयणं मे अस्थि ति । तेण भणियं-जइ एवं, ता खमियन्वं कुमारेण, जं मए विओयभीरुतणेण एद्दहमेत्तं कालं कओ पओयणविधाओ ति; जओ पाएणमिओ पइदिणमेव वहणाइं सीहलदीवं गच्छति। मए भणियं-वयंस, जइ एवं, ता अज्जेव गच्छम्ह । तेण भणियं-'अविग्धं कुमारस्स' । उवलद्धं जाणवत्तं, पसाहियं करणिज्ज । उवणीओ य मे नाम बालवयस्य इति, तेनापि चावाम् । ततोऽसम्भावनीयागमनशङ्कन निरूपितौ कञ्चित्कालम्, विहसितं चावाभ्याम् । ततः प्रत्यभिज्ञातावावाम् । प्रणम्य हर्षविषादगभितं जल्पितं तेन–कुमार ! अपि कशलं महाराजस्य । मया--भणितं--कूशलम। नीतौ तेन स्वगहम। कतो नौ विभवप्रीतिसदश उपचारः । भक्तोत्तरकाले पूष्ट आगमनप्रयोजनम्। 'तातनिर्वेदेन विनिर्गतः, सिंहलेश्वरा निजमातुलसमोपं गमिष्यामि' इति कथयित्वा सबहुमानं भणितश्चैषः । 'सिंहलद्वीपगामिवहनोपलम्भेऽवहितेन भवितव्यम्' इति । मनोरथदत्तेन भणितम्-यत्कुमार आज्ञापयति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रोतिलङ्घितो वियोगभोरुत्वेन न कथयति नौ उपलब्धमपि सिंहलद्वीपगामिकं वहनम् । अन्यदा च ज्ञात्वाऽऽवयोरुत्सुकत्वं भणितमनेन-कुमार ! किमवश्यमासन्नमेव गन्तव्यं कुमारेण । मया भणितम्-वयस्य ! प्रयोजनं मेऽस्तीति । तेन भणितम्-यद्येवं ततः क्षन्तव्यं कुमारेण, यन्मया वियोगभीरुत्वेन एतावन्मात्र कालं कृतः प्रयोजनविघात इति, यतः प्रायेण इतः प्रतिदिवसमेव वहनानि सिंहलद्वीपं गच्छन्ति । मया भणितम्-वयस्य ! यद्येवं ततोऽद्यैव गच्छावः । तेन भणितम्'अविघ्नं कुमारस्य'। उपलब्धं यानपात्रम्, प्रसाधितं करणीयम् । उपनोतश्च मह्य स्फुरद्भासुथा और (यहाँ) वाणिज्य के लिए आया था। उसने भी हम दोनों को देखा । तब आने की शंका की सम्भावना न होने के कारण हम दोनों ने कुछ समय तक एक-दूसरे को देखा और फिर हंस पड़े । अनन्तर हम दोनों ने पहिचान की । प्रणाम कर हर्ष और विषाद से भरे हुए उसने कहा --'कुमार ! महाराज कुशल हैं ?' मैंने कहा--'कुशल हैं।' वह हमदोनों को अपने घर ले गया। हम दोनों की वैभव और प्रीति के अनुरूप सेवा की। भोजन करने के बाद(उसने) आने का प्रयोजन पूछा । पिता जी से विरक्त होकर निकला हुआ मैं सिंहलाधिपति अपने मामा के पास जाऊँगा- ऐसा कहकर इससे आदरपूर्वक बोला---सिंहलद्वीप को जाने वाले जहाज (वहन) की प्राप्ति होने पर सावधान हो जाना अर्थात् मुझको सूचना देना।' मनोरथदत्त ने कहा-'कुमार की जैसी आज्ञा ।' कुछ समय बीत गया। प्रीति से लंधित हुए उसने वियोग के भय से सिंघल द्वीप को जानेवाले जहाज के प्राप्त होने पर भी हम दोनों से नहीं कहा । एक बार हम दोनों की उत्सुकता जानकर इसने कहा-~~-'कुमार ! क्या आप अवश्य ही जल्दी जाना चाहते हैं ?' मैंने कहा---'मेरा यही प्रयोजन है ।' उसने कहा---'यदि ऐसा है तो कुमार क्षमा करें, जो कि मैंने वियोग के भय से इतने समय तक प्रयोजन में अड़चन डाली, क्योंकि प्राय: यहाँ से प्रतिदिन ही जहाज सिंहल द्वीप को जाते हैं।' मैंने कहा-'मित्र! यदि ऐसा है तो हम लोग आज ही जायेंगे। उसने कहा-'कूमार निविघ्न हों। जहाज प्राप्त हो गया, कृत्य कार्यों से निपट लें।' मनोरथदत्त मेरे लिए, जिसकी कान्ति देदीप्यमान १. गमणसंकिएण-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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