Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 437
________________ पंचमो भवोj ३७९ होयव्वं ति । दिवसनि सिसमा संजोयविओया; कयाइ सो वि एवं चेव कहंचि पाणे धारेइ ति। तओ खुहापिवासाभिभूओ उययफलनिमित्तं पयट्टो उत्तराहिमुहं । गओ थेवं भूमि । दिट्ठा य फणसकयलयसहयारसंछन्नकला तीरतरुकूसुमरयरंजियजला गिरनई। कया पाणवित्ती। चिट्ठमाणेण य सहयारपायवसमीवे गिरिनई पुलिणम्मि दिट्ठो पियाए चाडयं करेमाणो सारसजुवाणओ। सुमरियं विलासवईए। जाया मे चिता-- अहो णु खलु एए अदिट्ठबंधुविरहदुक्खा साहोणाहारपयारा अविनायजायणादीणभावा पास ट्ठियपणइणीपसंगदुल्ललिया असंजायमहावसणभया सुहं जीवंति मियपक्खिणो। एवं चितयंतस्स अस्थागरिसिहरमुवगओ सहस्सरस्सी, रयणुज्जोवो विय सीयलीहूओ आयवो। कयं मए विमलसिलायलम्मि पल्लवसणिज्ज । संपाडियं संझावस्सयं । चियसमए कओ देवयागुरुपणामो । णुवन्नो वामपासेणं । अहिणंदिओ कुसुमसुरहिणा मारुएणं । बहुदिवसखेयओ समागया मे निद्दा । अइक्कंता रयणी । विउद्धो नाणाविह विहंगमविरुयपाहाउएण। कहो देवयागुरुकर्मपरिणतिः, न विषादिना भवितव्यमिति । दिवसनिशासमौ संयोगवियोगी, कदाचित् सोऽपि एवमेव कथञ्चितत्प्राणान् धारयतीति। ततः क्षुत्पिपासाभिभूत उदकफलनिमित्तं प्रवृत्त उत्तराभिमुखम् । गतः स्तोकां भूमिम् । दृष्टा च पनसकदलसहकारसञ्छन्नकूला तीरतरुकुसुमरजोरञ्जितजला गिरिनदी। कृता प्राणवृत्तिः । तिष्ठता च सहकारपादपसमापे गिरिनदीपुलिने दृष्ट: प्रिवायाश्चाटुकं कुर्वन् सारसयुवा । स्मृतं च विलासवत्याः । जाता मे चिन्ता। अहो नु खल्वेते अदृष्टबन्धुविरहदुःखाः स्वाधीनाहारप्रचारा अविज्ञातयाचनादीनभावाः पार्श्वस्थितप्रणयिनीप्रसङ्गदुर्ललिता असञ्जातमहाव्यसनभयाः सुखं जीवन्ति मृगपक्षिणः । एवं चिन्तयतोऽस्तगिरिशिखरमुपगतः सहस्ररश्मिः, रत्नोड्योत इव शोतलोभूत आतपः । कृतं मया विमलशिलातले पल्लवशयनीयम् । सम्पादितं सन्ध्यावश्यकम्। उचितसमये कृतो देवतागुरुप्रणामः। निपन्नो (शयितः) वामपार्वेण । अभिनन्दितः कुसुमसुरभिना मारुतेन । बहदिवसखेदतः समागता मे निद्रा। अतिक्रान्ता रजनी। विबुद्धो नानाविधविहङ्गमविरुतप्राभाचाहिए । संयोग और वियोग रात्रि और दिन के समान हैं, कदाचित् वह भी इसी प्रकार प्राणों को धारण कर रहा होगा। अनन्तर भूख-प्यास से पीड़ित होकर जल और फल के लिए उत्तरदिशा की ओर गया। थोड़ी दूर चला। कटहल, केला, आम्रवृक्षों से जिसका तीर आच्छादित था और किनारे के वृक्षों के फूलों के पराग से जिसका जल रंगा हुआ था ऐसी पर्वतीय नदी देखी । आहार किया । आम के वृक्ष के समीप बैठते हुए पर्वतीय नदी के तट पर प्रिया की चाटकारी करते हुए सारस युवक (युगल) को देखा। मुझे विलासवती का स्मरण हो आया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हई-ओह ! बन्धु के विरह सम्बन्धी दुःख को न देखकर (भोगकर) स्वाधीन आहार-विहार वाले, याचना और दीमभाव को न जानने वाले, समीप स्थित प्रिया के प्रसंग से नटखट तथा जिन्हें महान् आपत्ति का भय नहीं है, ऐसे ये पशुपक्षी सुखपूर्वक जीते हैं । (मेरे) ऐसा विचार करते हुए सूर्य अस्ताचल के शिखर पर चला गया, रत्न की प्रभा के समान प्रकाश शीतल हो गया। मैंने स्वच्छ शिलातल पर पत्तों की शय्या बनायी। सन्ध्याकालीन आवश्यक कार्य किये । उचित समय देव और गुरु को प्रणाम किया। बायीं करवट से सो गया। फूलों से सुगन्धित वायु ने अभिनन्दन किया। अनेक दिनों की थकावट के कारण मुझे नींद आ गयी। रात बीत गयी । अनेक प्रकार के पक्षियों की आवाज से युक्त प्रातः समय में जाग गया। देव तथा गुरु को प्रणाम किया। बन के मध्यभाग को देखने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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