Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ .३७८ [ समराइचकहा भिओ विसममारुओ, निवडियं असणिवरिसं, उम्मेण्ठमत्तहत्थी विय अणियमियगमणेणं अवसीयं जाणवतं, विसण्णा निज्जामया। तओमए अवटुंभ काऊण छिन्नाओ सियवडनिबंधणाओ रज्जओ, मउलियो सियवडो' विमुक्का नंगरा। तहावि य गरुययाए भंडस्स संखुद्धयाए जलनिहिणो उक्कडयाए असणिवरिसस्स विसग्णयाए निज्जामयाणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स विवन्नं जाणवत्तं । बंधवा वि य कालपरियाएणं विउत्ता सव्वपाणिणो। समासाइयं मए फलयं । तओ अहं आउयसेसयाए गमिऊण तिण्णि अहोरत्ते फनयदुइओ पत्तो तडसमोवं । अंधायारलेहा विय बिट्ठा वणराई । समससियं मे हियएण। उत्तिण्णो जलनिहोओ, निप्पीलियाई पोत्ताई। न तितं च निवसणगंठिसंठियं पडरयणं । अहो एयस्स सामत्थं ति जाओ मे विम्हओ। तओ गंतूण थेवं भूमिभागं उवविट्ठो जंबुपाय वसमावे। चितियं च मए–एयागि ताणि विहिणो जहिच्छियाविलसियाणि, एसा य सा कम्मणो अचितणीया सती, जमेवमवि असद्दहणिज्ज अवत्यंतरमणुहविऊण पाणे धारेमि । किं वा एगुदरनिवासिणा' विय वसुभूइणा विउत्तस्स पाणेहिं । अहवा विचित्ता कम्मपरिणई, न विसाइणा विषममारुतः, निपतितमशनिवर्षम्, उन्मिण्ठ(हस्तिपकोत्क्रान्त)मत्तहस्तीवानियमितगमनेनावशीभतं यानपात्रम्। विषण्णा निर्यामकाः । ततो मयाऽवष्टम्भं कृत्वा छिन्ना: सितपटनिबन्धना रज्जवः, मुकुलितः सितपटः। विमुक्ता नाङ्गराः। तथाऽपि च गुरुकतया भाण्डस्य संक्षुब्धतया जलनिधेरुटकटतयाऽशनिवर्षस्य विषण्णतया नियामकानां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विपन्न यानपात्रम् । बान्धवा इव कालपर्यायेण वियुक्ता: सर्वप्राणिनः । समासादितं मया फलकम् । ततोऽहमायुःशेषतया गमयित्वा त्रीनहोरात्रान् फलकद्वितीयः प्राप्तः तटसमीपम । अन्धकारलेखेव दष्टा वनराजिः। समुच्छ्वसितं मे हृदयेन । उत्तीर्णो जलनिधितः, निष्पाडितानि पोतानि (वस्त्राणि) । न तिमितं (आर्द्र) च निवसनग्रन्थिसंस्थितं पटरत्नम् । अहो एतस्य सामर्थ्य मिति जातो मे विस्मयः । ततो गत्वा स्तोकं भूमिभागमुपविष्टो जम्बफादपसमीपे । चिन्तितं च मया-एतानि तानि विधेर्यथे. च्छविलसितानि, एषा च सा कर्मणोऽचिन्तनीया शक्तिः, यदेवमपि अश्रद्धानीयमवस्थान्तरमनुभूय प्राणान् धारयामि । किं वा एकोदरनिवासिनेव वसुमतिना वियुक्तस्य प्राणैः। अथवा विचित्रा उठाकर विषम वायु(का प्रवाह)बढ़ने लगा । वज्र की वर्षा हुई। महावत के हट जाने पर अनियमित चाल के कारण जिस प्रकार मतवाला हाथी वश में नहीं रहता उसी प्रकार जहाज भी अनियमित गमन के कारण वश में नहीं रहा । जहाज चलाने वाले खिन्न हो गये। तब मैंने साहस कर सफेद वस्त्र (पाल) को बांधने बाली रस्सियों को तोड़ डाला, पाल बन्द हो गया। लंगर डाल दिये, फिर भी माल के भारी होने, समुद्र के क्षोभित होने, वज्र वर्षा (पत्थरों वगैरह की वर्षा) की उत्कटता, जहाज चलानेबालों की खिन्नता और कर्मपरिणाम की विचित्रता के कारण जहाज टूट गया । मृत्यु की अवस्था में जैसे बान्धव वियुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार समस्त प्राणी वियुक्त हो गये । मुझे लकड़ी का टुकड़ा मिल गया। तब आयुशेष रह जाने के कारण तीन दिन-रात बिता कर लकड़ी के टकडे के सहारे किनारे पर आ लगा। अन्धकार की रेखा के समान वनपंक्ति दिखाई दी। मेरे हृदय से गहरी लम्बी साँस निकली। मैं समुद्र से उतरा, वस्त्रों को निचोड़ा, वस्त्र की पोटली में स्थित वस्त्ररत्ल नहीं भीगा । ओह इसका सामथ्र्य ! इस प्रकार मुझे विस्मय हुआ। तब थोड़ी दूर जाकर जामुन के एक वृक्ष के पास जा बठा । म सोचा-भाग्य की ये इच्छानुसार चेष्टाएँ हैं, यह वह कर्म की अचिन्तनीय शक्ति है, जो कि इस प्रकार की विश्वास न करने योग्य अवस्था का अनुभव करते हुए भी प्राण धारण कर रहा हूँ। सहोदर भाई के समान वसुभूति के अलग हो जाने पर प्राणों से क्या अर्थात् प्राण धारण करने से क्या लाभ ? अथवा कर्म का फल विचित्र है, दुःखी नहीं होना १. सीयवड़ो-के, २. गरुयाए-ख, ३. फलदयं-क, ४.तिमियंक, ५. "वासिणोके। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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