Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 442
________________ ३८४ [समराइच्चकहा तओ अहं उक्कडयाए रायस्स रम्मयाए काणणाणं विलोहणिज्जयाए सुमिणयस्स गहिओ कामजरएण पयत्तो तं तासि गवेसिउं। वग्गभट्ठस्स विय हरिणयस्स जूहभट्ठस्स विय गइंदस्स तम्पि चेव काणणंतरे भमंतस्स महय परिकिलेसेणं अइक्कंता कइवि दियहा। दिट्ठो माहवीलयालिगिओ सहयारो । उवविठ्ठो तस्स सपोवे । तं चेव मुद्धहरिणलोयणं चितयंतो चिट्ठामि जाव, सुओ मए सुकपत्ताणं मरमरारवो । वालिया सिरोहरा, वियारिया दिट्ठी। दिट्ठा य भइनिम्मिएणं निडालपुंडएणं उड्ढबद्धेण जडाकलावेण पुत्तंजीवयमालालंकिएणं दाहिणारेण वामहत्थगहियकमंडल महंतवक्कलनिवसणा बहुदिवससंचियतबायासेण अद्विचम्मावसेसेणं सरीरएणं अइक्कंतमज्झिम. वयसा तावसि त्ति । तओ तं दळूण गूहिओ मए मयणवियारो। पणमिया य सा । तओ विसेसेण मं पलोइऊण ईसिबाहोल्ललोयणाए भणियं तीए-रायपुत्त, चिरं जीवसु' ति। तओमए चितियं-कहं पुण एसा मं वियाणइ त्ति । अहवा विमलनाणनयणो चेव तवस्सियणो होइ; ता कि न याणइ ति। एत्थंतरम्मि पुणा भणियमिमीए-कुमार, उवविसम्ह'; अस्थि किंचि भणियव्वं तए सह । तओ मए ततोऽहमूत्कटतया रागस्य, रम्यतया काननानां विलोभनीयतया स्वप्नस्य गहीतो कामज्वरेण प्रवत्तस्तां तापसी गवेषयितुम् । वर्गभ्रष्टस्येव हरिणस्य, यूथभ्रष्टस्येव गजेन्द्रस्य, तस्मिन्नेव काननान्तरे भ्रमतो महता परिक्लेशेनातिकान्ताः कत्यपि दिवसा: । दृष्टो माधवीलताऽऽलिङ्गितः सहकारः। उपविष्टस्तस्य समीपे । तामेव मुग्धहरिणलोचनां चिन्तयन् तिष्ठामि यावत, श्रतो मया शष्कपत्राणां मर्मरारवः । वालिता शिरोधरा, वितारिता दृष्टि: । दृष्टा च भतिनिर्मितेन ललाटपण्डकेन ऊर्चबद्धेन जटाकलापेन पुत्रजीवकमालाऽलंकृतेन दक्षिणकरेण वामहस्तगृहीतकमण्डलमहदकलनिवसना बहदिवससञ्चिततप आयासेन अस्थिचविशेषेण शरीरकेन अतिक्रान्तमध्यमवयाः तापसीति । ततस्तां दष्टवा गढो मया मदनविकारः । पूणता न सा । ततोवि शेषेण मां दष्ट वा ईषदवाष्पार्द्रलोचनया भणितं तया-'राजपुत्र ! चिरं जोव' इति । ततो मया चिन्तितं-कथं पनरेषा मां विजानातीति । अथवा विमलज्ञाननयन एव तपस्विजनो भवति, ततः किं न जानातोति । अत्रान्तरे पनर्भणितमनया-कुमार!उपविशावः, अस्ति किञ्चिद् भणितव्यं त्वया सह । ततो मया 'यद् भगवत् अनन्तर राग की उत्कटता,जंगलों की रम्यता और स्वप्न की विलोभनीयता के कारण कामज्वर से यहण किया जाकर मैं उस तपस्वनी को खोजने के लिए चल पड़ा । समूह से भ्रष्ट हुए हरिण के समान अथवा समदाय से भ्रष्ट हुए हाथी के समान उसी जंगल में घूमते हुए बड़े क्लेश से कुछ दिन बिताये । (मुझे) माधवीलता से आलिंगित आम का वृक्ष दिखाई दिया। (मैं) उसके पास बैठ गया। जब मैं उसी भोले-भाले हरिण के समान नेत्रों वाली के विषय में सोचता हुआ बैठा था तभी मैंने सुखे पत्तों की मर्मर-ध्वनि सुनी। गर्दन मोड़ी, दृष्टि दौड़ायी, राख से ललाटपुग्ड्र रचे हुए, जटाजूट को ऊपर की ओर बाँधे, दायें हाथ में जियापोता की माला से अलंकृत, बायें हाथ में कमण्डलु धारण किये हुए, बड़े वल्कल वस्त्र को पहिने हुए, अनेक दिनों में संचित तपस्या के परिश्रम से जिसके शरीर में हड्डियां और चर्म मात्र शेष रह गया था और जो मध्यम अवस्था को पार कर गयी थी, ऐसी तपस्विनी को देखा । अनन्तर उसे देखकर मैंने काम विकार छिपा लिया। मैंने उसे प्रणाम किया। तब मुझे विशेषरूप से देखकर आंसुओं से कुछ गीले नेत्रों वाली होकर उसने कहा-'राजपुत्र ! चिरकाल तक जिओ।' तब मैंने सोचा-यह मुझे कैसे जानती है ? अथवा तपस्विजन निर्मल ज्ञानरूपी नेत्र वाले होते हैं इसलिए क्यों नहीं जानती होगी? इसी बीच तपस्विनी ने फिर कहा-'कुमार ! हम दोनों बैठे, तुम्हारे साथ कुछ 1. उवविससु-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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