Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ पंचमो भवो] ३७३ वहणं' सुवण्णभूमि, अज्जेव रयणीए मुच्चिस्सइ त्ति । तेणेव सुवण्णभूमिगमणेण अणुग्गहेउ म मारो। मए भणियं-जं वो रोयइ त्ति। एत्यंतरम्मि समागओ संझासमओ। निगओ अहं सुभुइविणयंधरसमेओ तामलित्तीओ, गओ वेलाउलं । समप्पिया अम्हे विणयंधरेण सबहु णं वहण गमिणो समुद्ददत्तस्स, पडिच्छिया तेणअइकता थेववेला । समग्गओ कामिणोगंडडुरो चंदो. सनागया संखुद्ध जलयरनिनायगाभणा समुद्दवेला । समारूढो य अहयं वसुभूइदुईओ जाणवत्तं । चणेसु निवडिऊण 'कुमार, न मे कप्पियव्यं' ति भणिऊण बाहोल्ललोयणो नियत्तो विणयंध रो। कयाः मंगलाइं, उवउत्तो कण्णहारो, आपूरियं जाणवत्तं, पयट्ट पवणवेगेण । एत्यंतरम्मि वसुभूइणा भणियं मो वयंस, किमेयं ति । तओ मए साहिओ अणंगवइवुत्तंतो। तेण भणियं-अह किं पुण जहट्ठियं चे वन निवेइयं महारायस्स-मए भणियं । वयंस, अणंगवइपीडाभएणं ति। पत्ता अम्हे दुमासमेतण कालेण सुवणमि, ओइ । पधहणाओ । गया सिरिउरं नाम नयरं। दिट्ठो य तत्य सेयवियावत्थवओ समिद्धिदत्तसेहियुत्तो वाणि समागओ मणोरहदत्तो नाम बालवयंसओ इति । तेनव सुवर्णभूमि गमनेनानुगृह्णातु मां मारः। । या णितम्--यद् वो रोचते इति । अत्रान्तरे समागत: सन्ध्यासमयः । निर्गतोऽहं वर भूतिविनयन्धरसमेतः ताम्रलिप्तोतः, गतो वेलाकुलम् । समपितावावां विनयन्वरेण स बहुमानं वनस्वामिनः समुद्रदत्तस्य । प्रतीष्टौ तेन । अतिक्रान्ता स्तोकवेला । समुदगत: कामिनीगाउपाण्डुरश्च द्रः, समागता संक्षुब्धजलचरनिनादगभिता समुद्रवेला । समारूढश्चाहं वसुभूतिद्वितीयो यानपात्रम् । परणयोर्निपत्य 'कुमार ! न मे कुपितव्यम्' इति भणित्वा वाष्पार्द्रलोचनो निवृत्तो विनयन्वरः । कृत नि मङ्गल , उपयुक्तः कर्णधारः, आपूरितं यानपात्रम्, प्रवृत्तं पवनवेगेन। अत्रान्तरे वसुभूतिना भणितम्-भो वयस्य ! किमेतदिति । ततो मया कथितोऽनङ्गवतीवृत्तान्तः । तेन भणितम् -- 3थ किं पुनर्यथास्थितमेव न निवेदितं महाराजाय । मया भणितम्-वयस्य ! अनङ्गवतीपीडाभयेनेलि। प्राप्तावावां द्विमासमात्रेण कालेन सुवर्णभूमिम् । अवतीणौ प्रवहणात् । गतौ श्रीपुरं नाम नगरम् । दृष्टश्च तत्र श्वेतविकावास्तव्यः समृद्धिदत्तष्ठिपुत्रो वाणिज्यसमागतो मनोरथदत्तो से स्वर्णभूमि जाकर कुमार (मुझे) अनुगृहीत करें।' मैंने कहा -- 'जसा आपको अच्छा लगे ।' इसी बीच सन्ध्या का समय हो गया । मैं वसुभूति और वित्यन्धर के साथ ताम्रलिप्ती से निकला, समुद्र के तट पर गया। विनयधर ने हम दोनों को जहाज के स्वामी समुद्रदत्त को सौंपा । उसने स्वीकार कर लिया। कुछ समय बीता । कामिनी के गहनों के समान पीलापन लिये हुए सफेद रंग का चन्द्रमा उदित हुआ, जलचरों के शब्द से भरा हुआ क्षोभित समुद्र का तट आया। मैं वसुभूति के साथ जहाज पर सवार हो गया। विनयन्धर दोनों चरणों में पड़कर, 'कुमार ! कुपित न हों,' कहकर आंसुओं से आर्द्र लोचनवाला होकर लौट गया। मंगल कार्य किये । कर्णधार लग गये, जहाज को भरा,(जहाज्ञ) वायुवेग से चल पड़ा । इसी बीच वसुभूति ने कहा-'मित्र, यह क्या है !' तब मैंने अनंगवती का वृत्तान्त कहा । उसने कहा --- 'महाराज से ठीक-ठीक बात क्यों नहीं कह दी।' मैंने कहा-'मित्र ! अनंगवती की पीड़ा के भय से।' हम दोंनों दो माह में स्वर्णभूमि पहुँच गये। जहाज से दोनों उतरे। दोनों 'श्रीपुर' नामक नगर गये। वहाँ पर श्वेतम्विका के निवार सेठ के पुत्र मनोरथदत्त को देखा, जो कि मेरा बाल्यकालीन मित्र १. पवहर्ण-क, २. विणिय त्तो-ख, ३. कण्णधारो-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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