Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 429
________________ पंचमी भयो ३७१ भवओ दुरायाराइसद्दो अवितहसूयगेहि छिक्कादिनिमित्तेहिं । ता कि एइणा पलावप्पाएण । साहेहि, कहं पुण इमं ववत्थियं; जेण विन्नवेमि महारायस्स । मए भणियं-भद्द, किमहं साहेमि; अंबा एत्थ पमाणं । तेण भणियं-कमार, न तुज्झ एत्थ दोसो, दुट्टा य सा पाव ति सामन्नओ निच्छियमिणं, विसेसं नावगच्छामि । ता कि ममेइणा। एवं चेव एयं विन्नवेमि महारायस्स; तओ सो चेव एत्थ अंतं लहिस्सइ त्ति । भणिऊण उठ्ठिओ विणयंधरो, धरिओ मए भयावंडे, भणिओ य-भद्द, अलं अंबाए उवरि संरंभेण । चंचलं जीवियं । न खल एयं बहु मन्निऊण गुरुयणसंकिलेसकरण जुज्जइ। विणयंधरेण भणियं-कमार, पुत्तो तुमं महारायजसवम्मणो, किमेत्थ अवरं भणीयइ । अओ चेव मे तीए पावाए उवरि कोवो । ता करेहि पसायं; मुंच मं, जेण विन्नवेमि एयं वइयरं देवस्स । मए भणियं- अलमिमिणा निब्बंधेण । तेण भणियं-कुमार, अवस्समिणं मए देवस्स विन्नवियव्यं ति। मए भणियं-भद्द, जइ एवं, ता अवस्सं मए वि अप्पा वावाइयव्यो ति। एयमायण्णिऊण' बाहुल्लोयणो विसण्णो विणयंधरो। भणियं च णेण-अहो देवस्स असमिक्खियकारिया, जं ईइसं पुरिसरयणमेवं भवतो दुराचारादिशब्दोऽवितथसूचकैः क्षुतादिनिमित्तः । ततः किमेतेन प्रलापप्रायेण । कथय कथं पुनरिदं व्यवस्थितम, येन विज्ञपयामि महाराजाय । मया भणितम्-भद्र ! किमहं कथयामि, अम्बाऽत्र प्रमाणम् । तेन भणितम्--कुमार!न तवात्र दोषः, दुष्टा च सा पापेति सामान्यतो निश्चितमिदम विशेषं नावगच्छामि । ततः किं ममैतेन । एवमेवैतद् विज्ञपयामि महाराजाय, ततः स एवात्र अन्तं लप्स्यते इति भणित्वोत्थितो विनयन्धरः, धृतो मया भुजादण्डे भणितश्च–भद्र ! अलमम्बाया उपरि संरम्भेण, चञ्चलं जीवितम्, न खल्वेतद् बहु मत्वा गुरुजनसंक्लेशकरणं युज्यते । विनयन्धरण भणितम्-कुमार ! पुत्रस्त्वं महाराजयशोवर्मणः, किमत्र अपरं भण्यते। अत एव मे तस्या पापाया उपरि कोपः। ततः कुरु प्रसादम, मुञ्च माम, येन विज्ञपयाम्येतं व्यतिकरं देवस्य । मया भणितमअलमनेन निर्बन्धेन। तेन भणितम्-कुमार ! अवश्यमिदं मया देवस्य विज्ञपितव्यमिति । मया भणितम्-भद्र ! यद्यवं ततोऽवश्यं मयाऽप्यात्मा व्यापादयितव्य इति । एतदाकर्ण्य वाष्पार्द्रलोचनो विषण्णो विनयन्धरः। भणितं च तेन-अहो देवस्यासमोक्षितकारिता, यदीदशं परुषरत्नमेवं तुम दुराचारी नहीं हो, क्योंकि सिद्धादेश ने कहा है कि निर्दोषवस्तु के विषय में राजा ने विरुद्ध आदेश दे दिया है । वह भगवान् सही आदेश देने वाले हैं, आपके दुराचारी आदि शब्दों को सही बात की सूचना देने वाले छींक आदि निमित्तों ने सहन नहीं किया है। अतः इस प्रकार की बातों से क्या लाभ है ? कहो, यह कैसे हमा, जिससे महाराज से निवेदन करूं।' मैंने कहा-'भद्र! मैं क्या कहूँ. इस विषय में माता जी प्रमाण हैं।' उसने कहा-'कुमार ! इस विषय में तुम्हारा दोष नहीं है। वह दुष्टा और पापिन है। सामान्य रूप से यह निश्चित है. नहीं जानता हूँ। अतः मुझे इससे क्या । यह इस प्रकार है-ऐसा महाराज से कहँगा, तब वही इस विषय में निर्णय करेंगे'-ऐसा कहकर विनयन्धर उठ खड़ा हुआ। मैंने उसे बांह में लिया और कहा'भद्र ! माता पर क्रोध मत करो। जीवन चंचल है, इस घटना को बड़ा मानकर गुरुजनों को क्लेश देना उचित नहीं है ।' बिनयन्धर ने कहा-'कुमार ! तुम महाराज यशोवर्मा के पुत्र हो, और अधिक क्या कहा जाय ! इसी लिए उस पापिनी पर मेरा बहुत अधिक क्रोध है। अतः अनुग्रह करो, मुझे छोड़ो, जिससे महाराज से इस घटना का निवेदन करूं।' मैंने कहा-'यह आग्रह मत करो।' विनयन्धर ने कहा- 'कुमार! अवश्य ही में महाराज से निवेदन करूंगा।' मैंने कहा-'भद्र ! यदि ऐसा है तो मुझे भी अपने आपको अवश्य ही मार डालना चाहिए।' यह सुनकर आंसुओं से गीले नेत्र वाला विनयन्धर खिन्न हो गया और उसने कहा-'ओह ! महाराज का बिना १. "मायण्णिय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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