Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 427
________________ पंचमो भयो] ३६६ तं एस इमीए विवागो । निमित्तंतरजोगओ य अवगच्छामि, निद्दोसवत्युविसओ विष्णो ते रन्ना विरुद्ध एसो, नाहिप्पेओ य भवओ । ता मा संतप्य । जहा तुमं चितेसि, तहा एसो परिणमिस्सइ । किं तु सिग्धं पयट्टे हि, अन्नहा असोहणं परिणमइ । तो मए चितियं - अणेयसंजणियपच्चओ सिद्धाएसो खु एसो, एयं च एवंविहं पओयणं, विन्नवणागोरो य कोवो देवस्स, सव्वहा विसममेयं ति चितयंतो गओ निययहं । हा को उण इहोवाओ त्ति चितयंतो गहिओ उव्वेएण । पुच्छिओ य जणणीए -- पुत्तय, किमेवमुव्विग्गो विय लक्खीबसि । तओ मए 'नत्थि जणणीओ वि अवरं वोसासथाम' ति साहियं तोए । भणियं च जाए- पुत्तय, न तए इममणुचिट्ठियव्वं, कुलोवयारिपुत्तो खु एसो पुत्तयस्सति । साहिओ कहियवृत्तंतो। ता एवं ववत्थिए कमारो पमाणं ति । for forest fariधरो । तओ मए चितियं - हो मायासीलया इत्थवग्गस्स | अहवा महिलिया नाम भुयंगमगई विय कुडिलहिल्या, विज्जू विय दिटुनटुपेम्मा, सरिया विथ उभयकुलच्छाजात्र अदुधम्मा, हिंसा विय जीवलोय रहिय त्ति । अहवा कि इमीए चिताए । तदेषोऽस्या विपाकः । निमित्तान्तरयोगतश्चावगच्छामि, निर्दोषवस्तुविषयो वितीर्णस्ते राज्ञा विरुद्धादेशः, नाभिप्रेतश्च भवतः । ततो मा सन्तप्यस्व । यथा त्वं चिन्तयसि तथैष परिणस्यति । किन्तु शीघ्र प्रवर्तस्व, अन्यथाऽशोभनं परिणमति । ततो मया चिन्तितम् - अनेक संजनितप्रत्ययः सिद्धादेशः खल्वेषः, एतच्च एवंविधं प्रयोजनम् विज्ञापनागोवरश्च कोपो देवस्य सर्वथा विषममेतदिति चिन्तयन् गतो निजकगे हम। हा कः पुनरिहोपाय इति चिन्तयन् गृहीत उद्वेगेन । पृष्टश्च जनन्या -- पुत्र ! किमेवमुद्विग्न इव लक्ष्यसे ? ततो मया 'नास्ति जननीतोऽप्यपरं विश्वासस्थानम्' इति कथितं तस्यै । भणितं चानया-पुत्र ! न त्वयेदमनुष्ठातव्यम्, कुलोपकारिपुत्रः खल्वेष पुत्रस्येति कथितः कथितवृत्तान्तः । तत एवं व्यवस्थिते कुमारः प्रमाणमिति । स्थितस्तष्णिको वितयन्वरः । ततो मया चिन्नितम् - अहो मायाशीलता स्त्रीवर्गस्थ | अथवा महिलिका नाम भुजङ्गगतिरित कुटिल हृदया विद्युदिव दृष्टनष्टप्रेमा, सरिदिव उभयकुलोच्छादनी ससंगप्रव्रज्येव अस्पृष्टधर्मा, हिंमेव जीवलोकगर्हितेति । अथवा किमनया चिन्तया । अविवेकबहुला तो यह इसका फल है। किसी दूसरे के निमित्त से ज्ञात हुआ है कि निर्दोष वस्तु के विषय में राजा ने तुम्हारे विरुद्ध आदेश दिया, वह तुम्हारे लिए इष्ट नहीं है । अतः दुःखी मत होओ। जिस प्रकार तुम सोच रहे हो, उसी प्रकार इसकी परिणति होगी। किन्तु शीघ्र ही प्रवृत्त होएँ, नहीं तो विरुद्ध फल होगा ।" तब मैंने सोचा'यह सिद्धादेश अनेक विश्वापों को उत्पन्न करने वाला है और यह इस प्रकार का प्रयोजन है, मालूम पड़ने पर महाराज क्रुद्ध होंगे । यह सर्वथा विषम ( समस्या ) है - ऐसा विचार करते हुए मैं अपने घर चला गया। हाय ! इसका क्या उपाय है ? ऐसा सोचते हुए दुःखी होने लगा। माता ने पूछा - 'पुत्र ! क्यों इस प्रकार दु:खी जैसे मालूम पड़ रहे हो। तब मैंने माता के अतिरिक्त कोई दूसरा विश्वास का स्थान नहीं है - ऐसा सोचकर उससे ( माता से) कह दिया। उसने कहा, 'पुत्र ! तुम इस कार्य को मत करो, कुलोपकारी पुत्र का यह पुत्र है, इस प्रकार कहकर उसने वृत्तान्त कहा। ऐसी स्थिति में कुमार प्रमाण हैं अर्थात् इस विषय में क्या करना चाहिए, यह आप बतलाइए । विनयन्धर चुप हो गया । तत्र मैंने सोचा - 'ओह, स्त्री वर्ग की मायाशीलता ! अथवा स्त्री सांप की चाल के समान कुटिल हृदय वाली होती है, विद्युत् के समान देखते-देखते ही नष्टप्रेम वाली होती है, नदी के समान दोनों तटों (दोनों कुलों) को नष्ट करनेवाली होती है, आसक्तियुक्त दीक्षा के समान धर्म का स्पर्श न करने वाली होती १. कुलघायणी - क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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