Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 425
________________ पंचमो भवो ] ३६७ कुल उत्तयस्सावासभूमो, पट्टमाओहणं । एत्थंतरम्मि समागओ वाहियालीओ महारायत्तो महया आससाहणेण जसोवम्मदेवो । पुच्छावियं तेण - 'अरे किमेयं' ति । साहियं च से रायपुरिसेहि । भणियं च तेण - अरे मए अवावाइयम्मि को सरणागयवच्छलं वावाएइ त्ति निवेएह तायस्स । तओ उवसंतमाओहणं, निवेइयं राइणो, अवहीरियं च तेण - भद्द, वीसत्यो गच्छाहि ति बहु माणिऊण कुलउत्तयं गओ कुमारो । कुलउत्तओ य तक्करं पूइऊण अणुसासिऊण य तं पत्तो दुमासमेत्तेण कालेन जयत्थलं । पसूया से घरिणी । जाओ से शरओ; सो उण कुमार, अहं चेव । ता एवं सयलसत्तोवगारगो वि विसेसओ उवयारी ते पिया तायस्य अम्बाए ममं चति । निवेइयं कुमारस्त कारणं पुण इमं । अज्ज खलु समागमेत्तो चेव ईसाणचंदो महाराओ वाहियालीओ पविट्टो अणंगवइगेहं । दिट्ठा य तेण कररुहविलिहियाणणा बाहजलधोयकबोलपत्तलेहा अणंगवई, भणिया य - ' सुंदरि, किमेयं' ति । तीए भणियं - सोलपरिरक्खणविवाओ। राणा भणियं - साहेउ सुंदरी, कस्स सुमरियं कयंतेण । तीए कुलपुत्रस्यावासभूमिः प्रवृत्तमायोधनम् । अत्रान्तरे समागतो बाह्यालीतो महाराजपुत्रो महताऽश्वसाधनेन यशोवर्मदेवः । प्रच्छितं तेन - अरे किमेतदिति । कथितं च तस्य राजपुरुषः । भणितं च तेन - अरे मयि अव्यापादिते कः शरणागतवत्सलं व्यापादयतीति निवेदयत तातस्य । तत उपशान्तमायोधनम् निवेदितं राज्ञः, अवधारितं च तेन-भद्र ! विश्वस्तो गच्छ इति बहु मानयित्वा कुलपुत्रकं गतो कुमारः । कुलपुत्रकश्त्र तस्करं पूजयित्वाऽनुशिष्य च तं प्राप्तो द्विमासमात्रेण कालेन जयस्थलम् । प्रसूता च तस्य गृहिणी । जातस्तस्या दारकः, स पुनः कुमार ! अहमेव । तत एवं सकल सत्त्वोपकारकोऽपि विशेषत उनकारी ते पिता तातस्याम्बाया मम चेति । निवेदितं कुमाराय कारणं पुनरिदम् अद्य खलु समागतमात्र एव ईशानचन्द्रो महाराजो बाह्यालितः प्रविष्टोऽनङ्गवतोहम् । दृष्टा च तेन कररुद्ध विलिखितानना वाष्पजलधौतकपोलपत्रलेखाऽनङ्गवती । भणिता च - सुन्दरि ! किमेतदिति । तया भणितम् - शीलपरिरक्षण विपाकः । राज्ञा भणितम् - कथयतु सुन्दरो, कस्य स्मृतं कृतान्तेन ? तया भणितम्-न विज्ञप्तमेव मया आयी । कुलपुत्र की आवासभूमि को घेर लिया, युद्ध प्रारम्भ हो गया। इसी बीच बहुत से घुड़सवारों के साथ महाराज का पुत्र यशोवर्मदेव अश्वक्रीडनक भूमि से आया। उस ( यशोवर्म देव) ने पूछा --- ' अरे ! यह क्या है ?" राजपुरुषों ने उससे (वृत्तान्त ) कहा । उसने कहा - ' अरे मेरे मारे न जाने पर अर्थात् मेरे जिन्दा रहते हुए कौन शरणागतवत्सल को मारता है - ऐसा पिता जी से निवेदन कर दो।' तब युद्ध बन्द हो गया। राजा से निवेदन किया, उसने हार मान ली । 'भद्र ! विश्वस्त होकर जाओ। इस प्रकार कुलपुत्र का सम्मान कर कुमार चला गया। कुलपुत्र भी तस्कर को आदर देकर उसे शिक्षा दे दो मह में जयस्थल पहुँच गया । उसकी पत्नी ने प्रसव किया । उसके लड़का हुआ । हे कुमार ! वह मैं ही हूँ । इस प्रकार समस्त प्राणियों पर उपकार करने वाले होने पर भी आपके पिता, (मेरे) माता पिता के विशेष रूप से उपकारी हैं। कुमार से निवेदन किया- कारण यह है - आज महाराज ईशानचन्द्र अश्वको डनक भूमि से आकर सीधे अनंगवती के घर में प्रविष्ट हुए । ईशानचन्द्र ने नाखूनों से निशान बनायी हुई, आँसुओं के जल से गालों की पत्ररचना को धोयी अनंगवती को देखा। महाराज ने उससे (अनंगवती से ) कहा - 'सुन्दरी ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'शील की रक्षा करने का फल ।' राजा ने कहा - 'सुन्दरी, कहो, किसे यम ने स्मरण किया है ?' उसने कहा- 'मैंने महाराज से निवेदन ही नहीं किया १. वारावियं महाराएणक । २. भारिया के । ३. पुयं च मे जण णिजण याण सयासाओ। जहा विजयधम्मणो पुत्तजसोधम्मसंविभो णे जियलोभो । जस्स नाम पि सुमरिऊण हरिसवसुप्फुल्लोयणो वासरंपि सयलं तस्स सन्भूयगुण कित्तण करेत्ताण न तिप्पइ मत्तो चेव ईसाण चंदो क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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