Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 421
________________ पंचमो भवो] ३६३ मणुपत्तो म्हि। तओ 'नत्थि अकरणिज्ज विसयाउराण' ति चितिऊण जंपियं मए। अंब, परिच्चय इमं उभयलोयविरुद्धं अणज्जसंकप्पं, आलोएहि अत्तणो महाकुलं, अवेक्खाहि महारायसंतिए गुणे। संकप्पजोणी य निरयगमक्कदेसिओ अणंगो, न यापरिचत्तेहि इमेहि एस उवरमइ। न य विहाय चलणवंदणं तह सरीरेण मे उवओगो । सत्तिमंता वि य पुरिसा, जे न परिच्चयंति धम्मं, न खंडेंति सोलं, न लंघेति आयारं, न करेंति वयणिज्ज, न मुझंति उचिएसुं। अणंगपरिरक्खणं पिय न विवेयसन्नाहमंतरेण । अन्नं च-वल्लहो अहं ते, ता कहं खणियसुहं चेव बहु मन्निऊण पाडेहि मं अविझाययवहजालावलोभीसणे नरए। अओ परिच्चय इमं अविवेइजणबहुमयं कामाहिलासं। सामिसाली य तुमं ति । अओ एवं भणामि। भणियं च जो पावं कुणमाणं अणुयत्तइ सामियं व मितं वा । सो निरयपत्थियस्स' कहेइ कंडु जुयं मग्गं ॥४४६॥ एत्थंतरम्मि लज्जावणयवयणाए भणियं अणंगवईए-साहु कुमार साहु, उचिओ ते विवेगो। प्राप्तोऽस्मि । ततो 'नास्त्यकरणीयं विषयातुराणाम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं मया-अम्ब ! परित्यजेममुभयलोकविरुद्धमनार्यसङ्कल्पम्, आलोचयात्मनो महाकुलम्, अपेक्षस्व महाराजसत्कान गुणान । संकल्पयोनिश्व निरयगमनै कदेशिकोऽनङ्गः, न चापरित्यक्तैरेभिरेष उपरमति । न च विहाय चरणवन्दनं तव शरीरेण मे उपयोगः। शक्तिमन्तोऽपि च (ते) पुरुषा ये न परित्यजन्ति धर्मम, न खण्डयन्ति शालम्, न लङ्घयन्त्याचारम्, न कुर्वन्ति वचनोयम्, न मुह्यन्त्युचितेष । अनङ्गपरिरक्षणमपि च न विवेकसन्नाहमन्तरेण । अन्यच्च -बल्लभोऽहं ते, ततः कथं क्षणिकसूखमेव बह मत्वा पातयसि मामविध्यातहुतवहज्वालावलिभोषणे नरके। अतः परित्यजेममविवेकिजनबहुमतं कामाभिलाषम् । स्वामिशाली च त्वमिति, अत एवं भणामि । भणितं च-- य: पापं कुर्वन्तमनुवर्तते स्वामिकं वा मित्रं वा। स नरकप्रस्थितस्य कथयति काण्डर्जुक (काण्डवत्-वाणवद् ऋजु-सरलम्) मार्गम् ॥ ४४६।। अत्रान्तरे लज्जावनतवदनया भणितमनङ्गवत्या साधु कुमार ! साधु, उचितस्ते विवेकः । सा मैं दुःखी हुआ। तब विषयातुर लोगों के लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है' ऐसा सोचकर मैंने कहा- 'माता, बरलोक और परलोक के विरुद्ध अनार्य संकल्प का (आप) त्याग करें। अपने महान कूल के विषय में सोचें, महाराज सीखे गणों की अपेक्षा करें। कामदेव संकल्प की योनि और नरकगमन का पथप्रदर्शक है। त्याग न किये जाने पर यह शान्त नहीं होता है । चरणवन्दना को छोड़कर आपके शरीर का मेरे लिए (कोई) उपयोग नहीं है । वे सब पुरुष शक्तिमान हैं जो धर्म नहीं छोड़ते, शील को खण्डित नहीं करते हैं, आचार को नहीं लांघते हैं, निन्दा को नहीं प्राप्त करते हैं, उचितों में मोहित नहीं होते हैं । विवेकरूपी कवच के बिना काम से भी रक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी बात यह है कि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ; अतः क्षणिक सुख को ही अधिक मानकर (मुझे) जिसमें अग्नि की ज्वालाओं का समूह बुझता नहीं है, ऐसे भीषण नरक में क्यों गिराती हो? अत: अविवेकीजनों के द्वारा आदत यह कामाभिलाषा छोड़ा। आप समर्थ हैं । अतः ऐसा कहता हूँ। कहा भी है जो पाप करते हुए स्वामी अथवा मित्र का अनुसरण करता है वह नरक में जाने वाले के लिए सीधे मार्ग को कहता है (बतलाता है) ॥४४६।। इसी बीच लज्जा से मुंह झुकाये हुए अनंगवती ने कहा - 'अच्छा कुमार ! ठीक है, तुम्हारा विवेक उचित १. पत्थियस्सा-ख, 2. कंदुज्जये -ख, कंदुज्जयं पंथं-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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