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[ समराइच्चकहा
एवं सोऊण 'देवो पमाणं' ति । राइणा भणियं - 'श्रज्ज ! असंभावणिज्जमेयं, कुलप्पसुओ क्खु सो, ता कहं इमं अच्चतविरुद्धं करिस्सइ ।' जन्नदेवेण भणियं - 'देव ! नत्थि अन्नाणलोभवसगाण मसंभावणिज्जं । को य दोसो कुलस्स, किं न हवंति सुरभिकुसुमेसु किमिओ । ता निरूवावेहि ताव केणइ पयारेण तस्स गेहूं' ति । तओ 'जुत्तमेयं' ति चितिऊण समाणत्तं चंडसासणेण करणं । भणिया य कारणियानयर महंत गेहं सह घेत्तूण चंदणसत्थवाहभंडारियं पलोएह चक्कदेवस्स गेहे तं पणट्ठ रित्थं ति । तओ 'किमेइणा असंभावणिज्जेणं, अहवा आएसगारिणो श्रम्हे' 'त्त मंतिऊण, मेलविय नयरमहंतगे घेत्तूण चंदणसत्यवाहभंडारियं जाममेत्ते वासरे समागया मे गेहं पहाणनयरजणा हिट्टिया कारणिय त्ति । पुच्छिओ य तेहिं अहं - 'सत्थवाहपुत्त ! न ते किंचि केणइ एवंजाइयं रित्थं संववहारवडियाए उवणीयं ति । तओ मए असंजायसंकेण भणियं - 'नहि नहि' त्ति । तेहि भणियं - 'न तए कुप्पियध्वं रायसासणमिणं, गेहमवलोइयत्वं ति । मए भणियं - 'म एत्थ अवसरो कोवस्स, पयापरिरक्खणनिमित्तं समारंभी देवस्स । तओ पविट्ठा में गेहं सह नयरबुड्ढेहिं रायपुरिसा । अव -
श्रुत्वा 'देवः प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम् - 'आर्य ! असम्भावनीयमेतद्, कुलप्रसूतः खलु सः, ततः कथमिदमत्यन्तविरुद्धं करिष्यति ।' यज्ञदेवेन भणितम् - 'देव ! नास्ति अज्ञानलोभवशगानामसम्भावनीयम् । कश्च दोषः कुलस्य, किं न भवन्ति सुरभिकुसुमेषु कृमयः ? । ततो निरूपय तावत्केनचित्प्रकारेण तस्य गेहमिति । ततो 'युक्तमेतत्' इति चिन्तयित्वा समाज्ञप्तं चण्डशासनेन करणम् । भणिताश्च कारणिकाः— नगरमहद्भिः सह गृहीत्वा चन्दनसार्थवाहभाण्डागारिणं प्रलोकयत चक्रदेवस्य गृहे तत्प्रनष्टं रिक्थमिति । ततः किमेतेना सम्भावनीयेन, अथवा आदेशकारिणो वयम् इति मन्त्रयित्वा मेलयित्वा नगर महतो गृहीत्वा चन्दनसार्थवाहभाण्डागारिकं याममात्रे वासरे समागता मम गेहं प्रधाननगरजनाधिष्ठिताः कारणिका इति । पृष्टश्च तैरहम् - सार्थवाह पुत्र ! न ते किञ्चित् केनचिद् एवंजातिकं रिक्थं संव्यवहारपतितया उपनीतमिति । ततो मयाऽजातशङ्केन भणितम्'नहि नहि' इति । तैर्भणितम् - 'न त्वया कुपितव्यम्; राजशासनमिदम्, यत्ते गेहमवलोकयितव्यमिति । मया भणितम् - नात्र अवसर : कोपस्य, प्रजापरिरक्षणनिमित्तं समारम्भो देवस्य ।' ततः प्रविष्टा मे गेहं सह नगरवृद्धैः राजपुरुषाः । अवलोकितं च तैर्नानाप्रकारं द्रविणजातम्, दृष्टं च
श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न
और लोभ के वशीमें कीड़े नहीं हो चण्डशासन ने घर बड़े-बड़े लोगों तथा
छिपा लिया । यह सुनकर महाराज प्रमाण हैं ।” राजा ने कहा, "आर्य यह असम्भव है, वह हुआ है अतः अत्यन्त विरुद्ध ऐसे कार्य को कैसे करेगा ?" "यज्ञदेव ने कहा, "महाराज ! अज्ञान भूत हुए लोगों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। कुल का क्या दोष है, क्या सुगन्धित पुष्प हैं । अतः किसी प्रकार उसके घर की तलाशी ली जाय। तब 'यह उचित है' ऐसा सोचकर की तलाशी लेने की आज्ञा दी । नगर-रक्षक राज्याधिकारियों से कहा गया कि नगर के चन्दनव्यापारी के भण्डारी को लेकर चक्रदेव के घर चोरी हुई सम्पत्ति को देखो । तदनन्तर इस असम्भव कार्य से क्या ? अथवा हम लोग राजा की आज्ञा मानने वाले हैं, ऐसा विचारकर नगर के बड़े-बड़े लोगों के साथ चन्दन व्यापारी के भण्डारी को लेकर प्रहर मात्र दिन बीत जाने के बाद मेरे घर नगर-रक्षक राज्याधिकारी आये । उन्होंने मुझसे पूछा, "वणिकपुत्र ! आपके पास इस प्रकार की कोई वस्तु तो नहीं आपने ली हो ।" तब मैंने कुछ भी शंका न कर कहा, "नहीं नहीं।” उन्होंने की आज्ञा है कि हम लोगों को आपके घर की तलाशी लेनी चाहिए।" प्रजा की रक्षा के लिए राजा ने कार्य किया है ।" तब नगर के बड़े बड़े
है जो वणिकपति होने के कारण कहा, "आप कुपित मत हों । यह राजा मैंने कहा, "यह कोप का अवसर नहीं है । लोगों के साथ राजपुरुष मेरे घर में प्रविष्ट,
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