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उपभो]
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कप्पपायवे कवियच्छुवल्लि त्ति । ता अन्नं ते समाणरूवकुलविहवसहावं दारियं गवेसामो । न तए एत्थ संतप्पियव्वं । न मुच्चइ ससी जोव्हाए ति । तेण भणियं को एत्थ अवसरो संतावस्स; ईइसो खलु संसारसहावोति । तेहि भणियं - साहु साहु, महापुरिसो खुतुमं । ता कि एत्थ अवरं भणीयए त्ति ।
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तओ कया से गुरूह धणदेवमहिमा । निग्गओ धणो सह निद्धमिर्त्ताह । पूजिओ जक्खो, कया अत्थिजणपडिवती । गओ य भुत्तुत्तरसमए तयासन्नं चैव सिद्धत्थं नाम उज्जाणं । दिट्ठो य तत्थ असोयपायवतलगओ इरियाइपंचसमिइओ मणवयकायगुत्तो गुत्तिंदिओ गुत्तबंभवारी अममो afiant छिन्नगंथो निरुवलेवो, किं बहुणा, अट्ठारससीलिंगसहस्सधारी अणेयसाहुपरियओ जसोहरो नाम कोसला हिवस्स विणयंधरस्त पुत्तो समणसीहो त्ति । तं च दट्ठूण समुप्पन्नो से पमोओ, वियंभिओ धम्मववसाओ । चितियं च णेणं । अहो से रूवं, अहो चरियं, अहो से दित्ती, अहो सोमया, अहो से पुरिसयारो, अहो मद्दवं, अहो से लायण्णं, अहो त्रिसयनिष्पिवासया, अहो से जोव्वणं, अहो राजते कल्पपादपे कपिकच्छुवल्लिरिति । ततोऽन्यां तव समानरूप कुलविभवस्वभावां दारिकां गवेषयावः । न त्वयाऽत्र सन्तपितव्यम् । न मुच्यते शशी ज्योत्स्नाया इति । तेन भणितम् - कोऽत्रावसरः सन्तापस्य, ईदृशः खलु संसारस्वभाव इति । तैर्भणितम् - साधु साधु महापुरुषः खलु त्वम् । ततः किमत्रापरं भण्यते इति ।
ततः कृता तस्य गुरुभ्यां धनदेवमहिमा । निर्गतो धनो सह स्निग्धमित्रैः । पूजितो यक्षः, कृताऽर्थिजनपतिप्रत्तिः । गतश्च भुक्तोत्तरसमये तदासन्नमेव सिद्धार्थं नामोद्यानम् । दृष्टश्च तत्राशोकपादपतगत ईर्यादिपञ्चसमितिको मनोवचः कायगुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी अममोकिञ्चनश्छिन्नग्रन्थो निरुपलेपः -- किं बहुना, अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारी, अनेक साधुपरितो यशोधरो नाम कोशलाधिपस्य विनयन्धरस्य पुत्रः श्रमणसिंह इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नस्तस्य प्रमोदः, विजृम्भितो धर्मव्यवसाय: । चिन्तितं च तेन - अहो ! अस्य रूपम्, अहो ! चरितम्, अहो ! अस्य दीप्तिः, अहो ! सौम्यता, अहो ! अस्य पुरुषकारः, अहो ! मार्दवम्, अहो ! अस्य लावण्यम्, पाप कर्म करने के कारण वह तुम्हारे योग्य नहीं है। कल्पवृक्ष पर करेंच की लता शोभित नहीं होती है । अतः तुम्हारे लिए हम दूसरी समान रूप, कुल और वैभव वाली स्त्री ढूंढ देंगे । इस विषय में तुम दुःखी मत होना । चन्द्रमा चांदनी को नहीं छोड़ता है ।" उसने कहा- "यहाँ दुःख का क्या अवसर है, संसार का स्वभाव ऐसा ही है।" उन्होंने कहा- "अच्छा, अच्छा, तुम महापुरुष हो । अतः तुमसे ) दूसरी क्या बात कही जाय ।" अनन्तर उसके माता-पिता ने कुबेर की पूजा की। धन स्नेही मित्रों के साथ निकला। ( उसने यक्ष की पूजा की, याचकों को दान दिया । भोजन करने के बाद ( वह) समीपवर्ती सिद्धार्थ नामक बाग में गया। उसने अशोक वृक्ष के नीचे ईर्यादि पाँच समितियों से युक्त, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, निर्मोही, अकिञ्चन, निष्परिग्रही, निम्पलेप, अधिक कहने से क्या अठारह हजार शील के भेदों का पालन करने वाले, अनेक साधुओं से युक्त, कोशल नरेश विनयधर के पुत्र श्रमणों में सिंह अर्थात् श्रेष्ठ श्रमण यशोधर को देखा। उन्हें देखकर उसे हर्ष हुआ और धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ी । उसने सोचा- 'ओह् ! इनका रूप, चरित, दीप्ति, सौम्यता, पुरुषार्थं, मृदुता, सौन्दर्य, विषयों की स न होना,
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