Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 368
________________ समान्हा तओ तं दळूण विलिओ राया। चितियं च णेण-अहो वरं एए सुणहपुरिसा, न उण अहं पुरिससुणहो, जेण एवं तवचरणनिरयस्स भयवओ वि अकुसलं चितियं ति । एत्यंतरम्मि समागओ सयलाए विसालानयरीए पहाणो साहुवंदणनिमित्तं राइणो चेव बालमित्तो जिणवयणभावियमई अरहदत्तो नाम सेठिपुतो ति। विन्नाओ य तेण राइणो परलोयनिरवेक्खयाए मणिवरोवसग्गो' । तओ पणमिऊण भणिओ तेज नरवई-'देव, किमयं ति।' राइणा भणियं-जमुचियं परिससारमेयस्स। अरहयत्तेण भणियं-देव, पुरिससोहो खु तुम, ता कि एइणा। ओयरह तुरंगमाओ, वंदह भयवंतं सुदत्तमुणिवरं । एसो खु कालगाहिवस्स अमरदत्तस्स पुत्तो सुदत्तो नाम नरवई । एयस्स पढमजोव्वणे वट्टमाणस्स उवणीओ आरक्खिएण तक्करो। भणियं च तेण-देव, एएण परघरं पविसिऊण एगं महल्लगं वावाइय मुळं घरं, नोसरंतो गहिओ अम्हेहि; संपयं देवो पमाणं ति। एयं च सोऊण सद्दाविया लेण धम्मसत्थपाढया, भणिया य । एयस्स इमिणा आरक्खिएण एस दोसो कहिओ, ता कोइसो इमस्स दंडोति । तेहिं भणियं-देव, पुरिसघायओ परदव्यावहारी य एसो; ता तियचउक्कचच्चरेहि ततस्तं दृष्ट्वा ब्यलीको राजा। चिन्तितं च तेन-अहो वरमेते शनकपुरुषाः न पुनरहं पुरुपशुनकः येनैवं तपश्चरणनिरतस्य भगवतोऽपि अकुशलं चिन्तितम् । अत्रान्तरे समागतः सकलाया विशालानगर्यां प्रधानः साधु वन्दननिमित्तं राज्ञ एव बालमित्रं जिनवचनभावितमति रहद्दत्तो नाम श्रेष्ठिपुत्र इति । विज्ञातश्च तेन राज्ञः परलोकनिरपेक्षतया मुनिवरोपसर्गः । ततः प्रणम्य णितस्तेन नरपतिः- 'देव ! किमेतद्' इति । राज्ञा भणितम्-यदुचितं पुरुषसारमेयस्य । अहद्दत्तन भणितम -देव ! पुरुषसिंहः खलु त्वम , ततः किमेतेन, अवतर तुरङ्गमात्, वन्दस्व भगवन्तं सुदत्तमुनिवरम् । एष खलु कलिङ्गाधिपस्यामरदत्तस्य पुत्रः सुदत्तो नाम नरपतिः। एतस्य प्रथमयौवने वर्तमानस्योपनीत आरक्षकेन तस्करः । भणितं च तेन-देव ! एतेन परगहं प्रविश्य एक महत्तरं वापाद्यमुषितं गृहम , निःसरन् गहीतोऽस्माभिः, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । एतच्च श्र त्वा शब्दायितास्तेन धर्मशास्त्रपाठका भणिताश्च- एतस्यानेनारक्षकेन एव दोषः कथितः, ततः कीदशोऽस्य दण्ड इति ? तैीणतम -देव ! पुरुषघातकः परद्रव्यापहारो चंषः, ततिस्त्रक-चतुष्क-चत्वरेषु यह देखकर राजा दुःखी हुआ। उसने सोचा-"ओह ! ये कुत्ते रूप पुरुष उत्कृष्ट हैं, में पुरुष रूपी कुत्ता उत्कृष्ट नहीं हूँ, जिसने कि तपस्या में रत भगवान के विषय में भी अशुभ सोचा।" इसी बीच समस्त उज्जयिनी नगरी के प्रधान सेठ का अर्हद्दत्त नाम का पुत्र, जो कि जिनवाणी में श्रद्धा रखता था तथा जो राजा का बाल्यकालीन मित्र था, साध की वन्दना के लिए आया। उसे परलोक से निरपेक्ष राजा के द्वारा मुनि के ऊपर उपसर्ग की जानकारी हुई। तब उसने प्रणामकर राजा से कहा-"महाराज ! यह क्या है ?" राजा ने कहा---''जो पुरुष रूपी कुत्ते के योग्य है ।" अर्ह इत्त ने कहा- "महाराज ! आप पुरुषसिंह हैं अत: इससे क्या ? घोड़े से उतरो और भगवान् सुदत्त मुनिवर को प्रणाम करो। यह कलिंग के राजा अमरदत्त के पुत्र सुक्त्त नामक राजा हैं । जब यह यौवन की प्रथम अवस्था में थे तो सिपाही (आरक्षक) एक चोर को पकड़कर लाया। उसने कहा-'महाराज ! इसने दूसरे के घर में घुसकर एक मुखिया (महत्तर) को मारकर घर में चोरी की । जब यह घर से निकल रहा था तो हम लोगों ने पकड़ लिया, इस समय (अब) महाराज प्रमाण हैं।' यह सुनकर उस राजा ने धर्मशास्त्र के पाठी बुलवाये और कहा-'इस चोर का इस सिपाही ने यह दोष कहा है अतः इसे क्या दण्ड दिया जाय?' उन्होंने कहा-'महाराज ! यह पुरुषघातक तथा दूसरे के धन का अपहरण करने वाला है अतः तिराहों, चौराहों पर १." वरस्सुवसग्गो-ख, २.डंडवासिएण-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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