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[समराइन्चकहो मणोरहापूरणं काउं, किं वा न परिच्चयइ इमं पयत्तरक्खियं पि खीणभागधेयं पुरिसं, किं वा होइ कोइ दव्यजुयमयस्स' परलोए गुणो त्ति । सेटिणा भणियं-वच्छ, नस्थि एयं । धणेण भणियं-- ता किमिमिणा अहोपुरिसियावप्फारपाएणं; अणुमन्नउ ताओ मज्झं पि अत्तणो सरिसमणुचिट्ठियं ति । सेट्ठिणा भणियं--वच्छ, अणुमयं मए । किं पुण विसमा गई जोव्वणस्स; एत्थ खलु दुद्दमाइं इंदियाई, पहवइ संसारतरुबीयभूओ अणंगो, आयड्ढंति य मणोहरा विसय त्ति। धणेण भणियं-ताय, न खलु अविवेगओ अन्नं जोवणं ति । अणाइमंता इमे जीवा, न एत्थ परमत्थओ कोइ जोव्वणत्थो न वा वुड्ढओ त्ति । दीसंति अविवेगसामत्थओ वुड्ढा वि एत्थ जम्मे अणियत्तविसयविसाहिलासा अगणेऊण लोयवयणिज्जं अवियारिऊण परमत्थं अप्पाणयं विडंबेमाण त्ति; हिययाहियमलेण वि य दव्वंतरजोएण कालपरिणामसुक्किले व करेंति कालए केसे, अंगकढिणयाहेउं च सेवंति पारयमद्दणं, वुड्ढभावदोसभोरू साहति इत्तरं जम्मकालं; वियारसीलयाए परिसर्केति वियडयाइं, पयट्टति अपयट्टियव्वे, न पेच्छंति समस्तस्याथिवर्गस्य मनोरथापूरणं कर्तुम् ? कि वा न परित्यजति इदं प्रयत्नरक्षितमपि क्षीणभागधेयं पुरुषम् ? किं वा भवति कोऽपि द्रव्ययुतमृतस्य परलोके गुण इति ? श्रेष्ठिना भणितम्वत्स! नास्त्येतद् । धनेन भणितम्-ततः किमनेनाहोपुरुषिकावस्फारप्रायेण, अनुमन्यतां ताता ममापि आत्मनः सदशमनुष्ठितमिति । श्रेष्ठिना भणितम्-वत्स ! अनुमतं मया । किंपुनर्विषमा गतियौवनस्य, अत्र खलु दुर्दमानान्द्रियाणि, प्रभवति संसारतरुनोजभतोऽनङ्गः, आकृषन्ति च मनोहरा विषया इति । धनेन भणितम्-न खल्वविवेकतोऽन्यद् यौवनमिति । अनादिमन्त इमे जोवाः, नात्र परमार्थतः कोऽपि यौवनस्थो नवा वृद्ध इति । दृश्यन्तेऽविवेकसामर्थ्यतो वृद्धा अप्यत्र जन्मन्यनिवृत्तविषयविषाभिलाषा अगायत्वा लाकवचनीयमविचार्य परमार्थमात्मानं विडम्बयन्त इति, हृदयाहितमलेनापि च द्रव्यान्तरयोगेन कालपरिणाम शुक्लानपि कुर्वन्ति कालकान् केशान्, अङ्गकठिनताहेतुं च भवन्ति पारदमर्दनम, वृद्धभावदोषभीरुः कथयन्ति इत्वरं (अल्पं) जन्मकालम्, विकारशीलतया परिष्वष्कन्ति (परिषेवन्ते) विकृतानि, प्रवर्तन्तेऽप्रवर्तनीये, न प्रेक्षन्ते क्षोणमायुः, न चिन्तयन्ति जन्मासमस्त याचक समूह का मनोरथ पूरा करना सम्भव है ? क्या प्रयत्न से रक्षा किये गये क्षीणभाग्य वाले पुरष को यह नहीं त्याग देता है ? द्रव्य सहित जो व्यक्ति मरता है, उसका परलोक में कोई गुण (लाभ) होता है ?" सेठ ने कहा-“ऐसा तो नहीं है।" धन ने कहा-"तो अभिमान से भरी हुई उक्ति से क्या लाभ है ? पिताजी, (आप) मने भी अपने समान कार्य करने की बाज्ञा दीजिए।" सेठ ने कहा-"पुत्र ! मैंने अनुमति दे दी। अधिक क्या, यौवन की गति विषम है, यहाँ इन्द्रियाँ कठिनाई से दमन करने योग्य हैं, संसाररूपी वृक्ष का बीजभूत कामदेव प्रभाव दिखला रहा है और मनोहर विषय आकर्षित कर रहे हैं।" धन ने कहा-"अविवेक से अतिरिक्त दूसरा कोई यौवन नहीं है। ये जीव अनादिकाल से हैं, यथार्थ रूप से न यहाँ कोई युवक है, न वृद्ध है, अविवेक की सामर्थ्य से इस जन्म में वृद्ध भी विषयरूपी विष की अभिलाषा से निवृत्त न होकर, लोकनिन्दा को न गिनकर, परमार्थ का विचार न कर अपने आपकी विडम्बना करते हुए देखे जाते हैं, हृदय के लिए अहितकारी मल के द्वारा भी दूसरे द्रव्य के संयोग से समय के फलस्वरूप सफेद हुए भी बालों को काले करते हैं। अंग की कठिनता के लिए पारद के लेप का सेवन करते हैं (लगाते हैं) । वृद्धपने के दोषों से डरकर अपनी आयु थोड़ी बतलाते हैं विकारवान् होने के कारण विकृतियों का सेवन करते हैं, जिनमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, ऐसे कार्यों में प्रवृत
१. "जुयस्स मयस्स-ख ।
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