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वसुभा
पंचमो भवो] णीयं अणणुहूयपुवं तहाविहं दुक्खाइसयमणहवंतस्स खणमेत्तलद्धनिद्दस्य अइक्कता रयणी । कयंगोसकिच्चं । समागया वभूइप्पमुहा वयंसया विइण्णाई तंबोलाइ। गया अम्हे कलानिमित्तं तमेव भवणुज्जाणं । पवत्ता कोरिउ विचित्तकोलाहिं । सुन्नहिययत्तणाओ य लक्खिओ मे चित्तम्मि । मयणवियारो वसुभूइणा । विते य कीलावइयरे माहवीलयामंडवम्मि चिट्ठमाणो भणिओ अहं तेण - भो वयस्स, अह किं पुण तुमं अज्ज वासरम्भि व ससी विच्छाओ दीससि, खणं च झाणगओ विय मणी सयलचे निरु भसि, तओ य लद्धलाहो विय जयारो परिओसमव्वहसि ति। तओ मए असमिक्खियकारियाए मयणस्स बीयहिययभयस्स वि गहमाणेण निययमायारं जंपियं न किचि लक्खमि त्ति ।
भइणा भणियं--'अहं लक्खेमि।'मए भणियं -- कि तयं।' बसभइणा भणियं-आरोविओ ते बउलमालियागिहेण राबदारियाए गयचितामारो, विद्धो य तीए दिट्टिपायच्छलेण मयणसरधोरणीहि । तज्जणिओ एस वियारो। अन्नहा कहमयंडम्मि चेव परिपंडुरं ते वयणं, अलद्धनिद्दासुहाइं च तारशयनोये । तत्र चानाख्येयमसम्भावनोयमननुभूतपूर्व तथाविधं दुःखातिशयमनुभवतः क्षणमात्रलब्धनिद्रस्यातिक्रान्ता रजनो । कृतं प्रातःकृत्यम् । समागता वसुभूतिप्रमुखा वयस्याः । वितीर्णानि ताम्बलानि । गता वयं क्रोडानिमित्तं तदेव भवनोद्यानम् । प्रवृत्ताः क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिः । शन्यहृदयत्वाच्च लक्षितो मे चित्ते मदनविकारो वसुभूतिना। वृत्ते च क्रोडाव्यतिकरे माधवोलतामण्डपे तिष्ठन् भणितोऽहं तेन-भो वयस्य ! अथ किं पुनस्त्वमद्य वासर इव शशी विच्छायो दृश्यसे, क्षणं च ध्यानगत इव मुनिः सकलचेष्टां निरुणत्सि, ततश्च लब्धलाभ इव द्यूतकारः परितोषमुद्वहसीति ? ततो मयाऽसमीक्षितकारितया मदनस्य द्वितीय हृदयभूतस्यापि गहता निजमाकारं जल्पितं 'न किञ्चिद् लक्षयामि' इति वसुभूतिना भणितम्-'अहं लक्षयामि' । मया भणितम्-'कि तद्' । वसुभूतिना भणितम् --आरोपितस्ते बकुलमालिकानिभेन राजदारिकया गुरुकचिन्ताभारः, विद्धश्च तया दृष्टिपातच्छलेन मदनशरधोरणिभिः । तज्जनित एष विकारः । अन्यथा कथमकाण्डे एव परिपाण्डुरं ते वदनम्, अलब्धनिद्रासुखे च तारताम्र लोचने, हृदयायासकारिणो दीर्घदीर्घा निःश्वासा
को विदा कर दिया। शयनगृह (निवास भवन) में गया, शय्या पर पड़ रहा । वहाँ पर अकथनीय, असम्भावनीय, जिसका पहले अनुभव नहीं किया था, ऐसी पीडा का अनुभव करते हए क्षणमात्र नींद लेकर रात बिता दी। प्रात:कालिक क्रियाओं को किया। वसुभूति आदि मित्र आ गये। पान दिये गये । हम सब लोग क्रीड़ा के लिए उसी भवनोद्यान में गये । अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को करने में प्रवृत्त हए । शून्यहृदय होने के कारण मेरे चित्त में वसुभूति ने काम का विकार जान लिया । क्रीडाकार्य समाप्त होने पर जब मैं माधवीलता के मण्डप में बैठा था तो उसने कहा--'हे मित्र ! आज तुम कैसे दिवसकालीन चन्द्रमा के समान आभाहीन दिखाई दे रहे हो ? क्षणभर ध्यान लगाये हुए मुनि की भाँति तुमने समस्त चेष्टाओं को रोक दिया ? जिसे लाभ प्राप्त हो गया है, ऐसे जुआरी के समान सन्तोष धारण कर रहे हो?' तब बिना विचारे कार्य करने वाले मैंने दूसरे हृदय के समान वसुभूति से भी अपने काम के आकार को छिपाकर कहा---'कुछ भी तो नहीं सोच रहा हूँ।' वसुभूति ने कहा -'मौलसिरी माला के बहाने राजपुत्री ने तुम्हारे ऊपर बहुत भारी चिन्ता का भार डाल दिया। उसने दृष्टिपात के बहाने कामदेव के बाणों की वर्षा से वेध दिया है। उससे उत्पन्न हुआ यह विकार है, अन्यथा असमय में ही तुम्हारा मुख पीला (मुरझाया हुआ) क्यों है ? निद्रा रूपी सुख को प्राप्त न करने के कारण आँखें १. वत्ते य-क।
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