Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 405
________________ म पंचो भयो कुमारभावे तत्थ चिट्ठामि जाव गहिया केइ तक्करा वक्षा निज्जति । विट्ठा य ते मए वाहियालि गएणं । भणियं च तेहि-देव, सरणागया अम्हे, परित्तायउ देवो। तओ मोयाविया मए, रुट्ठा नायरया, निवेइयमारक्खिएहि महारायस्य । भणियं च तेणं-जहा कुमारो न याणइ, तहा गेण्हिऊण ते निवेइऊण नायरयाणं वावाएह त्ति । वावाइया य तक्करा, विन्नाओ मए एस वुत्तंतो। रुट्ठो महारायस्य निग्गओ नयरीओ बला पहाणपरियणस्य, आगओ तामलित्ति । मुणिओ एस वृत्तंतो तन्नयरिसामिणा ईसाणचंदेण। निग्गओ पच्चोणि । बहमन्निओ अहं तेण भणिओ य-वच्छ, इमं पि ते निययं चेव रज्जं; ता सुंदरमणुचिट्ठियं, जमिहागओ सि त्ति। पविट्ठो नरि, दिनो मे कुमारावासो। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु भणाविओ अहं तेण । गण्हाहि जहिच्छियं जीवणं ति । न रुपडिवन्नं च तं मए । ___ तो तत्थव चिट्ठमाणस्य आगओ अविवेयग्धविय'जणमणाणंदयारी वसंतसमओ, वियंभिओ मलय , फुल्लियाई काणणुज्जाणाई, उच्छलिओ परहुयारवो, पयत्ताओ नयरिचच्चरीओ। एवंविहे य कुमारभावे तत्र तिष्ठामि यावद् गहोता: केचित् तस्करा वध्या नीयन्ते । दृष्टाश्च ते मयाऽश्ववाह. निकां गतेन । भणितं च तैः-देव शरणागता वयम्, परित्रायतां देवः । ततो मोचिता मया । रुष्टा नागरिकाः, निवेदितमारक्षकैर्महाराजस्य । भणितं च तेन ---यथा कुमारो न जानाति तथा गृहीत्व तान् निवेद्य नागरिकेभ्यो व्यापादयतेति । व्यापादिताश्च तस्कराः, विज्ञातो मयैष वृत्तान्तः । रुष्टो महाराजाय निर्गतो नगर्या बलात् प्रधानपरिजनस्य । आगतस्ताम्रलिप्तीम् । ज्ञात एष वृत्तान्तो तन्नगर। स्वामिना ईशानचन्द्रेण । निर्गतः (पच्चोणि दे) सन्मुखम्। बहुमानितोऽहं तेन भणितश्च-वत्स ! इदमपि ते निजकमेव राज्यम्, ततः सुन्दरमनुष्ठितं यदिहागतोऽसीति । प्रविष्टिो नगरीम्, दत्तो मे कुमारावासः अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु भणितोऽहं तेन गृहाण यथेप्सितं जीवनमिति । न प्रतिपन्नं च तन्मया। ततस्तत्र व तिष्ठतः आगतोऽविवेकपूर्णजनमन-आनन्दकारी वसन्तसमयः, विजृम्भितो मलयमारुतः, फुल्लितानि काननोद्यानानि, उच्छलितः परभृतारवः प्रवृत्ता नगरचर्चयः । एवंविधे च वसन्तहोते हुए जब मैं कुमारावस्था में था तो कुछ चोरों को पकड़ कर वध के लिए ले जाया जा रहा था। घोड़े पर सवार होकर जाते हुए मैंने उन्हें देखा। उन्होंने कहा-'महाराज ! हम लोग शरण में आये हुए हैं, महाराज हमारी रक्षा करें। तब मैंने (चोरों को) छुड़वा दिया । नागरिक जन रुष्ट हो गये। सिपाहियों ने महाराज से निवेदन किया। महाराज ने कहा-'कुमार को पता न चले, इस तरह से उन्हें पकड़कर, नागरिकों को बतलाकर मरवा दो।' चोरों को मार दिया गया। मुझे यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ। प्रधान परिजनों के बल से महाराज पर रुष्ट हो मैं नगरी से निकल गया । ताम्रलिप्ती पहुँचा। यह वृत्तान्त ताम्रलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र को विदित हुआ। मैं उसके पास से निकला । उसने बहुत सत्कार किया और कहा--'वत्स ! यह भी तुम्हारा ही राज्य है, अतः ठीक किया जो यहाँ आ गये।' मैं नगर में प्रविष्ट हुआ, मुझे (निवास के लिए) कुमारभवन दिया गया। कुछ दिन बीत जाने पर उस राजा ने मुझसे कहा-'इच्छानुसार जीविका ले ले।' मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। अनन्तर वहीं रहते हुए अविवेकपूर्ण मनुष्यों के मन को आनन्द देने वाला वसन्त का समय आ गया। मलयाचल की वायु जोर से चलने लगी । वन और उद्यान खिल उठे। कोयलों का जोर-जोर का शब्द होने १. भग्धवियं-पूर्णम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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