Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 404
________________ [समराइज्यका यकरयलंजलिउडं भणियं च णेणं- भयवं, असारो चेव एस संसारो कस्स वा सयण्णविन्नाणस्स न निव्वेयकारणं, तहा वि पाएणं न बज्झनिमित्तमंतरेण एस संजायइ त्ति । ता आचिक्ख' भयवं, कि ते विसेसनिव्वेधकारणं, कं वा भयवंतमवगच्छामिति । तओ भयवया 'अहो से विवेगो, अहो वयणविन्नासो, अकहिज्जमाणे मा अलोइयं संभावइस्सह, त्ति चितिऊण भणियं-सोम, सुण । विसेसकारणं पि न संसारवियारमंतरेण, तहावि विइयसंसारसहावस्सवि भवओ कोउयं ति कलिऊण साहिज्जइत्ति । ३४६ किह ? अथ इव भारहे वासे सेयविया नाम नयरी । तत्थ जसवम्मो राया । तस्स पुत्तो सणकुमाराभिहाणी अहं । जायमेत्तस्स आइट्ठ ं च मे संवच्छरिएण विज्जाहरनरिदत्तणं ति । अइवल्लहो तायस्स सुणिऊणऽप्पनियाणं महाविवागं च कम्मपरिणामं । चित्तंगयविज्जा हरस मणसमीवम्मि निक्खतो ॥४३६ ॥ विनयर चितकरतलाञ्जलिपुटं भणितं च तेन । भगवन् - असार एवैष संसार:, कस्य वा सकर्णविज्ञानस्य न निर्वेदकारणम् ? तथाऽपि प्रायेण न बाह्यनिमित्तमन्तरेण एष सञ्जायते इति । तत आचक्ष्व भगवन् ! कि ते विशेषनिर्वेदकारणम्, कं वा भगवन्तमवगच्छामीति । ततो भगवता 'अहो तस्य विवेक:, अहो वचनविण्यासः, अकथ्यमाने मा अलौकिकं सम्भावयिष्यति' इति चिन्तयित्वा भणितम् - सौम्य ! शृणु । विशेषकारणमपि न संसारविचारमन्तरेण तथाऽपि विदितसंसारस्वभावस्यापि भवतः htraमिति कलयित्वा कथ्यते इति । कथम् ? अस्ति इहैव भारते वर्षे श्वेतविका नाम नगरी । तत्र यशोवर्मा राजा । तस्य पुत्रः सनत्कुमाराभिधानोऽहम् । जातमात्रस्यादिष्टं च मे सांवत्सरिकेन विद्याधरनरेन्द्रत्वमिति । अतिवल्लभस्तातस्य चला गया ।।४३६ ॥ कैसे ? श्रुत्वाऽल्पनिदानं महाविपाकं च कर्मपरिणामम् । चित्राङ्गदविद्याधरश्रमणसमीपे निष्क्रान्तः ॥ ४३६॥ यह संसार असार ही है, किस सुनने वाले के लिए यह वैराग्य का कारण नहीं है ? तथापि प्रायः बाह्य निमित्त के बिना यह वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है अतः भगवन् ! 'कहिए, आपके वैराग्य का विशेष कारण क्या है ?' 'ओह ! उसका विवेक और वचन- विन्यास आश्चर्यकारी है। बिना कहे यह अलौकिक नहीं हो सकता है' ऐसा सोचकर उन्होंने कहा - 'सौम्य ! सुनो। संसार के स्वरूप के विचार के अतिरिक्त कोई विशेष कारण नहीं है । फिर भी, संसार के स्वरूप को जानते हुए भी, आपका कौतूहल है - ऐसा मानकर कहा जा रहा है । छोटे से कारण और महाफल वाले कर्म के परिणाम को सुनकर चित्रांगद विद्याधर श्रमण के समीप Jain Education International इसी भारतवर्ष में श्वेतविका नामक नगरी | वहाँ यशोवर्मा नामक राजा था। उसका पुत्र में सनत्कुमार हूँ । मेरे जन्म लेते हुए, ज्योतिषियों ने विद्याधरों का स्वामी होने की भविष्यवाणी की थी। पिता का अत्यन्त प्रिय १. प्राचिक्ख-ख, २. 'किवा भयवंतमणुजाणामि त्ति' इत्यपि पाठःख, ३. कलियख । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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