Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 403
________________ पंचमो भवो ] ३४५ नामाए रापदारियाए नरवइस्स । कयं जहोचियमणेणं । अइक्कतो मासो। पइट्टावियं च से नाम दारयस्स जयकुमारो त्ति कहाणयविसेसेण । पत्तो कुमारभाव । गहिओ तेण रायकुमारोचियकलाकलायो पुत्वभवभावणाओ य अस्थि से धम्मचरणम्मि अणुराओ। ___अन्नया य निग्गओ आसवाहणियाए। दिट्ठो य तेण चंदोदयउज्जाणे अहाफासुए पएसे दिणयरो विय दित्तयाए चंदो विय सोमयाए समुद्दो विय गंभीरयाए रयणरासी विय महग्घयाए कुसुमामेलो विय लायण्णयाए सग्गो विय रम्मयाए मोक्खो विय निव्वयाणिज्जयाए सेयवियाहिवस्स जसवम्मणो पुत्तो पडिवन्नामलगो ससमयपरसमयगहियसारो अणेयसमणपरियओ सणंकुमारो नामायरिओ ति। च ठूण समुप्पन्नो कुमारस्य संवेगो । चितियं च णेणं-अहो णु खल ईइसो एस संसारो, जेण एवंविहेहि पि सुरलोयदुल्लहेहि अजत्तसंपज्जंतसयलमणोरहेहिं महापुरिसेहिं परिचत्तो त्ति । ता को पुण एसो, किं वा से परिच्चायविसेसकारणं ति पुच्छामि एयं । गओ तस्स समीवं, वंदिओ तेण भयवं सणंकुमारा। यरिओ सेससाहुणो य । धम्मलाहिओ भयवया सेससाहूहि य। उवविट्ठो गुरुपायमूले । विणयरइयथोचितमनेन । अतिक्रान्तो मासः । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम दारकस्य 'जयकुमार' इति कथानकविशेषेण । प्राप्तः कुमारभावम् । गृहीतस्तेन राजकुमारोचितकलाकलापः । पूर्वभवभावनातश्चास्ति तस्य धर्मचरणेऽनुरागः । अन्यदा च निर्गतोऽश्ववाहनिकया । दृष्टस्तेन चन्द्रोदयोद्याने यथाप्रासुके प्रदेश दिनकर इव दीप्त्या, चन्द्र इव सौम्यतया, समुद्र इव गम्भीरतया, रत्नराशिरिव महार्यतया, कुसुमापोड (काम) इव लावण्यतया (लावण्येन), स्वर्ग इव रम्यतया, मोक्ष इव निर्वचनीयतया, श्वेतविकाधिपस्य यशोवर्मणः पुत्रः प्रतिपन्नश्रमणलिङ्गः स्वसभयपरसमयगृहीतसारोऽने कश्रमणपरिवृतः सनत्कुमारनामाचार्य इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नः कुमारस्य संवेगः । चिन्तितं च तेन-अहो ! नु खलु ईदृश एष संसारः, येन एवंविधैरपि सुरलोकदुर्लभैरयत्न सम्पद्यमानसकलमनोरथैर्महापुरुषैः परित्यक्त इति । ततः कः पुनरेषः किं वा तस्य परित्यागविशेष कारणमिति पच्छाम्येतम् । गतस्तस्य समोपम् । वन्दितस्तेन भगवान् सनत्कुमाराचार्यः शेषसाधवश्च । धर्मलाभितो भगवता शेषसाधुभिश्च । उपविष्टो गुरुपादमूले नामक राजदारिका ने राजा से निवेदन किया। राजा ने यथोचित कार्य सम्पन्न किये । एक माह बीत गया । पुत्र का नाम कथानकविशेष से जयकुमार रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। उसने राजकुमारों के योग्य कलाओं के समूह को ग्रहण किया । पूर्वभव की भावनावश उसका धर्मपालन के प्रति अनुराग हो गया। __ एक बार वह घोड़े पर सवार होकर निकला । उसने चन्द्रोदय नामक उद्यान के स्वच्छ प्रदेश में श्वेतविकाधिपति यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार नामक आचार्य को, जिन्होंने श्रमणलिंग धारण कर लिया था, देखा । वे दीप्ति में सूर्य के समान थे, सौम्यता में चन्द्रमा के समान थे, गम्भीरता में समुद्र के समान थे, बहुमूल्यता में रत्नों की राशि के समान थे, सौन्दर्य में काम के समान थे, रमणीयता में स्वर्ग के समान थे, उपशान्ति में मोक्ष के समान थे, उन्होंने स्वसमय (आत्मा) और परसमय (आत्मा से भिन्न द्रव्य का स्तर ग्रहण किया था और बे अनेक श्रमणों से घिरे हुए थे। उन्हें देखकर कुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने सोचा – 'ओह ! यह संसार ऐसा है कि जिसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ, बिना यत्न के समस्त मनोरथों को प्राप्त हुए महापुरुष भी त्याग देते हैं । अतः यह कौन हैं और इनके परित्याग का विशेष कारण क्या है ? यह मैं इनसे पूछता हूँ। वह उनके समीप गया । उसने भगवान आचार्य सनत्कुमार और शेष साधओं की वन्दना की। भगवान और शेष साधओं ने उसे धर्मलाभ दिया। वह गुरु के चरणों में विनयपूर्वक हाथों की अंजलि बांधकर बैठ गया और बोला-'भगवन ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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