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पउत्यो भवो]
३४॥ नरवइसमीवं गच्छम्ह । एयं च सोऊण ससज्झसा भयपवेविरंगी निवडिया धरणिवठे धणसिरी। वंडवासिएण चितियं-कयमिणमिमीए, कहमन्नहा एवंविहं भयं ति निभच्छिया एसा। मिलियो जणवओ। एयं च वइयरमायण्णिऊण जणसयासाओ 'मा अहं च एवं चेव घेप्पिस्सामि' ति चितिऊण अप्पविसिऊण नियगेहं दुवारओ चेव पलाणो नंदओ। नीया य एसा नरवइसमीवं । साहिओ वुत्तंतो नरवइस्स । पुलइया जेणं, चितियं च । हंत कहमेयाए आगिईए इमं ईदिसं निसंसकम्मं भविस्सइ ? पुच्छिा य णेणं-अह' किनिमित्तं तुम चंडियाययणं गया आसि ? तओ य तं वयणं सोऊण संखुद्धत्तणेणं न जंपियमिमीए । सुमुप्पन्ना संका राइणो। थेववेलाए पुणो वि पुच्छिया। कओ तुमं कस्स वा धूय ति? तओ साहियमिमीए । सुसम्मनयराओ, अहं पुण्णभद्दस्स धूया, समुद्ददत्तस्स घरिणी धणसिरी नाम। गवेसाविओ से भत्ता, नोवलद्धा य । तओ अच्चंतसुद्धसहावयाए जहाठियं पयापरिवालणसह मुन्वहंतेणं 'कयाइ न तरइ रायपुरओ साहिउं पओयणं, तावीसत्था साहिस्सइ' ति कुलप्पवाहपरियाणणनिमित्तं पेसिओ राइणा पुण्णभद्दमंतरेण एयवइयरपडिबद्धलेहसणाहो लेहवाहओ। रक्खाविया समीपं गच्छावः । एतच्च श्रुत्वा ससाध्वसा भवप्रवेपमानाङ्गी निपतिता धरणीपष्ठे धनश्रीः। दण्डपाशिकेन चिन्तितम् - कृतमिदमनया, कथमन्यथा एवंविधभयमिति । निर्भत्सितैषा । मिलितो जनवजः । एतं च व्यतिकरमाकर्ण्य जनवजसकाशात् 'माऽहं च एवमेव ग्रहोष्ये' इति चिन्तयित्वाप्रविश्य निजगेहं द्वारत एव पलायितो नन्दनः। नोता चैषा नरपतिसमीपम् । कथितो वृत्तान्तो नरपतये । दृष्टा तेन, चिन्तितं च । हन्त कथमेतयाऽकृत्या इदमोदृशं नशंसकर्म भविष्यति ? पष्टा च तेन-अथ किंनिमित्तं त्वं चण्डिकायतनं गताऽऽसीः ? ततश्च तद् वचनं श्र त्वा संक्षब्धत्वेन न जल्पितमनया । समुत्पन्ना शङ्का राज्ञः। स्तोकवेलायां पुनरपि पृष्टा -कुतस्त्वं कस्य वा दुहितेति ? ततः कथितमनया-सुशर्मनगरात्, अहं पूर्णभद्रस्य दुहिता, समुद्रदत्तस्य गृहिणी धनश्री म । गवेषितस्तस्य भर्ता, नोपलब्धश्च । ततोऽत्यन्तशुद्धस्वभावतया यथास्थितं प्रजापालनशब्दमुद्वहता 'कदाचिद् न शक्यते राजपुरतः कथयितुं प्रयोजनम्, ततो विश्वस्ता कथयिष्यति' इति कुलप्रवाहपरिज्ञाननिमित्तं प्रेषितो राज्ञा पूर्णभद्रमन्तरेण(समीपे) एतद्व्यतिकरप्रतिबद्धलेखसनाथो लेखवाहकः । की भीड़ इकट्ठी हो गयी । इस घटना को सुनकर मनुष्यों की भीड़ के पास ' मैं भी इसी प्रकार न पकड़ा जाऊँ।' ऐसा सोचकर अपने घर में न घुसकर नन्दक द्वार से ही भाग गया। इसे (धनश्री को) राजा के पास ले गये । राजा से वृत्तान्त कहा । राजा ने देखा और सोचा-'खेद है, ऐसी बाकृति वाली इसने कैसे इस नृशंस कार्य को किया होगा?' राजा ने पूछा- 'तुम किस कारण चण्डी के मन्दिर में गयी थी ?' अनन्तर उनके वचन को सुनकर क्षुब्ध होने के कारण यह नहीं बोली । राजा को शंका हुई । थोड़ी देर में पुनः पूछा-'तुम कहाँ से आयी हो और किसकी पुत्री हो ।' तब इसने कहा – 'सुशर्मनगर से आयी हूँ। मैं पूर्णभद्र की पुत्री और समुद्रदत्त की पत्नी हूँ। मेरा नाम धनश्री है।' उसके पति को ढूढ़ा गया और वह मिला नहीं। अनन्तर अत्यन्त शुद्ध स्वभाव वाले और प्रजापालन के शब्द को यथार्थरूप से वहन करते हुए 'कदाचित् राजा के सामने प्रयोजन न कह सकती हो । बाद में विश्वस्त हो कर कहेगी'--ऐसा सोचकर कुल-परम्परा का पता लगाने के लिए राजा ने पूर्णभद्र के पास इस घटना के लेख के साथ
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१. कह-क।
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