Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 397
________________ पजत्यो भवो) दंडवासियो, गओ चंडियापरणं'। पुच्छ्यिा जेण भोइया--को उग अज्ज एत्थं वसिओ ति? तोए भणियं-न कोइ भुयंगप्पाओ, जइ परं समुद्ददत्तस्स घरिणो धणसिरि त्ति । दंडवासिएण भणियंकिं पुण से निवासक ? भोइयाए भणियं-ल याणामो ति। दंडवासिएण चितियं--न अज्ज अटमी, न नवमी, न चउडसी, ता कि-पुणे से निवासकारण? पबसणनिमित्तं होज्जा: तं पि अंघड. माणयं, जओ कल्लम्मि अंगारदिगो, चरमपोरिसीए य विट्ठी आसि विणिवाजयोगो त्ति । न खल दुमित्थियायणं मोत्तणमेवं विहं कम्म पि पाएण कस्सइ अन्नरस संभवइ । ता गच्छामि ताव समहदत्तगेहं, तओ चेव मे उवलद्धी हविस्सइ ति। गओ एसो, दिट्ठा य तेण दुवारदेसभायम्मि चेव चेडी। पुच्छिया एसा । अस्थि इह सत्थवाहपरिणी न व त्ति ? तओ ससंखोहं भणियं चेडियाए-कि पूर्ण तीए पओयणं ? तओ दंडवासिएण अहिप्पायभणिइकुसलेण सयमिव जंपियं-आ पावे विसुमरिग्रो ते रिसिवतंतो त्ति ? तओ सकम्मदुटुत्तणेण नियडिवलिययाए । भणियं चेडियाए-अज्ज, गवेसणनिमित्तं चेव भगवओ ते अहं सामिणोर पेसिया, न उग अन्नं वियाणामि । तओ दंडवासिएण 'न निर्गतो दण्डपाशिकः, गतश्चण्डिकायतनम्। पृष्टास्तेन पूजिका-कः पुनरत्रोषित इति ? तया भणितम् -न कोऽपि भुजङ्गप्रायः, यदि परं समुद्रदत्तस्य गृहिणो धनश्रोरिति । दण्डपाशिकेन. भणितम् ---कि पुनस्तस्या निवासकार्यम् ? पूजिकया भणितम्-न जानीम इति । दण्डपाशिकेन चिन्तितम --नाद्याष्टमी, न नवमी, न चतुर्दशी, ततः किं पुनस्तस्या निवासकारणम् ? प्रवसननिमित्तं भवेत् तदप्यघटमानकम्, यतः कल्येऽङ्गारकदिनः, चरमपौरुष्यां च विष्टिरासीद् विनिपातयोग इति । न खलु दुष्टं स्त्रीजनं मुक्त्वा एवंविधं कर्मापि प्रायेण कस्यचिदन्यस्य सम्भवति, ततो गच्छामि तावत् समुद्रदत्तगेहम्, तत एव मे उपलब्धिर्भविष्यतीति । गत एष, दृष्टा च तेन द्वारदेशभाग एव चेटी । पृष्टैषा--अस्तीह सार्थवाहगृहिणो नवेति ? ततः ससंक्षोभं भणितं चेटिकयाकिं पुनस्तस्याः प्रयोजनम् ? ततो दण्डपाशिकेनाभिप्रायभणितिकुशलेन सासूयमिव जल्पितम्- आः पापे ! विस्मृतस्ते ऋषिवृत्तान्त इति ? ततः स्वकर्मदुष्टत्वेन निकृतिवलिकतया च भणितं चेटिकया-आर्य ! गवेषणनिमित्तमेव भगवतोऽहं स्वाभिन्या प्रेषिता, न पुनरन्यद् विजानामि । ततो 'अरे शीघ्र ही ऋषि का घात करने वाले को प्राप्त करो।' दण्डपाशिक (सेनापति निकल पड़ा। (वह) चण्डी के मन्दिर में गया । उसने पुजारिन (पूजिका) से पूछा-'यहाँ पर कौन ठहरा था? उसने कहा-'कोई चोर नहीं था, . यदि कोई दूसरा था तो समुद्रदत्त की गृहणी धनश्री थी ।' दण्डपाशिक ने कहा-'उसके रहने का क्या प्रयोजन था ?' पुजारिन ने कहा -- 'नहीं जानती हूँ।' दण्डपाशिक सेनापति)ने सोचा ----'आज न अष्टमो है, न नवमी है; न चतुर्दशी है, अतः उसके रहने का क्या कारण है ? विदेशगमन के कारण ऐसा हुआ हो, वह भी नहीं घटता है, क्योंकि कल मंगलवार था, अन्तिम प्रहर में नरकवास और मरण का योग था। दुष्ट स्त्रीजन को छोड़ कर इस प्रकार का कार्य अन्य के द्वारा सम्भव नहीं है । अतः समुद्रदत्त के घर जाता हूँ, वहाँ से ही मुझे उपलब्धि होगी।' यह गया, इसने द्वार पर ही दासी को देखा । दासी से पूछा-'यहाँ पर व्यापारी की गृहिणी है अथवा नहीं ?' तब क्षुभित होकर दासी ने कहा-'उससे क्या प्रयोजन ?' तब अभिप्राय को व्यक्त करने में कुशल दण्डपाशिक ने असूयायुक्त होते हुए के समान कहा -'अरी पापिन ! क्या तू ऋषि का वृतान्त भूल गयो ?' तब आने कार्य की दुष्टता और देव की बलवत्ता के कारण दासी ने कहा-'आर्य ! भगवान को खोजने के लिए ही मुझे स्वामिनी ने भेजा था, अन्य कुछ भी नहीं जानती हूँ। तब दण्डाशिक ने, 'इसमें कोई सन्देह नहीं है । अन्यया खोजने के लिए क्यों भेजा वा १. देवयायर्ण-ख, 2, निवासस्स कारणं-ख, ३. तीए योयणं ? तपोडवासिएणं अहिप्पासे निवास"-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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