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[समराइच्चकहा
तवस्सी । एत्यंतर म्मि आगओ सारकट्ठभरिएण पवहणेण ते मुद्देसं सागडिओ, भग्गो य से अक्खो । तओ अत्थमुवगयपाओ दिणयरो । न कोई कट्ठे गेण्हइ त्ति घेत्तूण गोणे गओ निययगेहं । तओ चितियं धणसिरीए-लट्ठयं जायं, एएहिं चैव सारकट्ठेह डहिस्सामि एयं ति । गया चंडियाययणं कया देवयाए पूया, दिन्नं कम्मयाराणं, पाणभोयणं, पसुत्ता एए। तओ एयाइणी चेव गया मुणिवरस्यासं । अन्ना को हमूढाए विरइयाइं भयवओ समीवंम्मि कट्ठाई न लक्खियाइं च भाणजोयमुवगएणं भयवया । पज्जा लिओ जलणो, छिक्को भयवं जलणजालावलीए । संजाओ से करुणपहाणत्त गेण झालजोयकमो । किह ?
चितेइ यसो भगवं काउस्सग्गम्मि अचलियस हावो । अनुयंपागयचित्तो जलिए जलणम्मि उज्झतो ॥ ४२८ ॥ इह धन्ना सरिसा जे नवरमणत्तरं गया मोक्खं । जम्हा ते जीवाणं न कारणं कम्मबंधस्स || ४२६ ॥
चेटिकया गता धनश्रीस्तदुद्यानम् । दृष्टस्तया तपस्वी । अत्रान्तरे आगतः सारकाष्ठभूतेन प्रवहणेन तमुद्देशं शाकटिकः, भग्नश्च तस्याक्षः । ततोऽस्तमुपगतप्रायो दिनकरः । न कोऽपि काष्ठानि गृह्णातीति गृहीत्वा गावौ गतो निजकगेहमिति । ततश्चिन्तितं धनश्रिया -लष्टं जातम्, एतैरेव सांरकाष्ठैः धक्ष्याम्येतमिति । गता चण्डिकाऽऽयतनम् कृता देवतायाः पूजा, दत्तं कर्मकराभ्यां पानभोजनम्, प्रसुती । तत एकाकिन्येव गता मुनिवरसकाशम् । अज्ञानक्रोधमूढया विरचितानि भगवतः समीपे काष्ठानि न लक्षितानि च ध्यानयोगमुपगतेन भगवता । प्रज्वालितो ज्वलनः स्पृष्टः भगवान् ज्वलनज्वालावल्या । सञ्जातस्तस्य करुणाप्रधानत्वेन ध्यानयोगसंक्रमः । कथम् ?
चिन्तयति स भगवान् कायोत्सर्गेऽचलितस्वभावः । अनुकम्पागतचित्तो ज्वलिते ज्वलने दह्यमानः ॥४२८॥ इह धन्याः सत्पुरुषा ये नवरमनुत्तरं गता मोक्षम् । यस्मात्ते जीवानां न कारणं कर्मबन्धस्य || ४२६ ||
साथ धनश्री उस उद्यान को गयी। उसने तपस्वी को देखा। इसी बीच गाड़ी में सारवान लकड़ी भरकर गाड़ी वाला आया, उसकी गाड़ी की धुरी टूट गयी । अनन्तर सूर्य अस्तप्राय हो गया । 'कोई लकड़ियों को नहीं लेगा' - ऐसा सोचकर दोनों बैलों को लेकर गाड़ीवान घर चला गया। तब धनश्री ने सोचा - 'ठीक हुआ, इन्हीं सारवान लकड़ियों से इसे जलाऊँगी ।' ( वह ) चण्डी के मन्दिर में गयी। देवी की पूजा की, दोनों मजदूरों को भोजन - पान दिया, ये दोनों सो गये । तब अकेली ही मुनिवर के पास गयी। अज्ञान और क्रोध से मूढ़ होकर भगवन के पास लकड़ियाँ लगायीं, ध्यानयोग को प्राप्त हुए भगवान् ने (उन्हें ) नहीं देखा । ( धनश्री ने) आग जलाई, आग की ज्वाला ने भगवान् को छू लिया । करुणप्रधान होने के कारण वे ध्यानयोग में लीन हो गये । कैसे ?
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कास में अचलित स्वभाव वाले, दयायुक्त चित्तवाले, जलती हुई अग्नि में करने लगे । वे सत्पुरुष धन्य हैं जो उत्कृष्ट मोक्ष को चले गये; क्योंकि वे जीवों के हैं ।।४२८-४२६ ॥
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जलते हुए वे भगवान् विचार कर्मबन्ध के कारण नहीं
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