Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 393
________________ ree भवो ] ३३५ अइक्कंतो जायणासमओ त्ति निग्गओ एवं । अहिययरं से पओसमाधाना धणसिरी । 'पच्चभिन्नाया अहं, अन्ना कहं सिग्घमेव निग्गओ' त्ति चितिऊण पेसिया चेडी । हला, कहिं पुण एस समणओ ठिओ त्ति सम्मं वियाणिऊण लहुं मे संवाएहि । तीए भणियं - 'जं सामिणी आणवेइ' त्ति भणिऊण निग्गया चेडी, लग्गा एयस्स मग्गओ । निययसमएणं च निग्गओ भयवं । न पडुप्पन्नो य से जहोचिओ आहारो, गओनयरिदेवया डबद्धं उज्जाणंतरं । एत्थंतरम्मि ओगाढा चरिमा, ठिओ भयवं काउस्सग्गेणं । तओ कंचि कालं चिट्ठिऊण 'न एस इओ गच्छइ' त्ति मुणिऊण आगया चेडी, निवेइयं धणसिरीए । भणिओ ती नंदओ | अपडुसरीरे तुमम्मि उवाइयं भयवईए नयरिदेवयाए, जहा किण्हपक्खट्ठमीए गहिओववासवाए आययणवासी कायन्वोत्ति । अइकंता य मे पमायओ अट्ठमी । तओ सुमिणयम्मि चोइया अहं भवईए । सुत्ताए चैव य तुमं गोसे किच्चकरणे निग्गओ त्ति, अओ न साहिओ पहाए सुविणओ । कओ अज्ज उववासो । अओ अहं तत्थ गच्छामि त्ति । संपाडेहि मे भयवईए पूओवयरणं ति । संपाडियं नंदणं । तओ कम्मरदुगाहिट्ठिया सह पुव्वचेडियाए गया धनसिरी तमुज्जाणं । दिट्ठो तीए तीति । अत्रान्तरेऽतिक्रान्तो याचनासमय इति निर्गतो भगवान् । अधिकतरं तस्य द्वेषमापन्ना धनश्रीः । प्रत्यभिज्ञाताऽहम्, 'अन्यथा कथं शीघ्रमेव निर्गतः' इति चिन्तयित्वा प्रेषिता चेटी । हले, कुत्र पुनरेष श्रमणः स्थित इति सम्यग् विज्ञाय लघु मे संवादय । तया भणितं - यत्स्वामिन्याज्ञापयति इति भणित्वा निर्गता चेटी, लग्ना एतस्य मार्गतः । नियतसमयेन च निर्गतो भगवान् । न प्रत्युत्पन्नश्च (प्राप्तश्च) तस्य यथोचित आहारः । गतो नगरीदेवताप्रतिबद्धमुद्यानान्तरम् । अत्रान्तरेऽवगाढा चरमा (पौरुषी) । स्थितो भगवान् कायोत्सर्गेण । ततः कञ्चित् कालं स्थित्वा 'नैष इतो गच्छति' इति ज्ञात्वाऽऽगता चेटी । निवेदितं धनश्रियै । भणितस्तया नन्दकः । अपटुशरीरे त्वयि उपयाचितं भगवत्या नगरीदेवतायाः, यथा कृष्णपक्षाष्टम्यां गृहीतोपवासव्रतयाऽऽयतनवासः कर्तव्य इति । अतिक्रान्ता च मे प्रमादतोऽष्टमी । ततः स्वप्ने चोदिताऽहं भगवत्या । प्रसुप्तायामेव च त्वं कृत्य करणे निर्गत इति, अतो न कथितः प्रभाते स्वप्नः । कृतोऽद्योपवासः । अतोऽहं तत्र गच्छामीति । संपादय मे भगवत्याः पूजोपकरणमिति । सम्पादितं नन्दकेन । ततः कर्म करद्विकाधिष्ठिता सह पूर्व का समय निकल गया है - ऐसा सोचकर भगवान् निकल गये । धनश्री का द्वेष उनके ऊपर अधिक बढ़ गया । मुझे पहचान लिया है, नहीं तो कैसे शीघ्र ही निकल जाता - ऐसा विचारकर दासी भेजी । “सखि ! यह श्रमण कहाँ है ? ऐसा ठीक तरह से जानकर शीघ्र मुझे बतलाओ ।" उसने कहा - " जो स्वामिनी की आज्ञा " - ऐसा कहकर दासी निकल गयी । इनके ( साधु के) मार्ग में लग गयी । नियत समय पर भगवान् निकले । उनको यथोचित आहार नहीं मिला । तब नगरदेवी के उद्यान में गये। इसी बीच सायंकाल हो गया । भगवान् कायोत्सर्ग से खड़े हो गये । तब कुछ समय ठहरकर 'यहाँ से नहीं जाता है - यह जानकर दासी आ गयी । ( उसने ) धनश्री से निवेदन किया । उसने नन्दक से कहा । आपके अस्वस्थ होने पर भगवती नगरदेवी से प्रार्थना की कि "कृष्णपक्ष की अष्टमी को उपवास व्रत लेकर मन्दिर में निवास करूंगी। मेरे प्रमाद के कारण अष्टमी निकल गयी । अनन्तर स्वप्न में भगवती ने मुझे प्रेरणा दी। मैं जब सो रही थी तब तुम प्रातःकालीन कृत्यों को करने के लिए निकल गये अतः प्रातःकाल में स्वप्न नहीं कहा। आज ( मैंने ) उपवास किया है। अतः मैं वहाँ जा रही हूँ । देवी की पूजन योग्य सामग्री वगैरह लाओ । नन्दक सामग्री लाया । तब दो मजदूर तथा पहले वाली दासी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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