Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 387
________________ चरत्यो भयो ] भगवओ इंदभूइस समीवे । ता एवं निययमेव मे चरियं निव्वेयकारणं ति । धणेण भणियं, भयवं - सोहणं ते निव्वेयकारणं । कस्स वा सहिययस्स अन्नस्स वि इमं न frodeकारणं ? ईइसो एस संसारो । ता आइसउ भयवं जं मए कायव्वं ति । जसोहरेण भणियंसोम, सुण | दुल्लहा चरणधम्मसामग्गी; जओ भणियं भयवया । दुविहा खलु जीवा हवंति, थावरा जंगमा य । तत्थ थावरा' पुढ विजलजलणमाख्यवणस्स इकायभे प्रभिन्ना, जंगमा उण किमिकीडपयंगगोमहिससर हवस हपसय माइणो । तत्थ थावरत्तम बगओ पुढवाइएसु असंखेज्जाओ वणस्स इम्मि' अनंताओ उस पिणअवसप्पिणीओ परिवसइ जीवो त्ति । अओ थावरत्ताओ जंगमत्तं दुल्लहं । जंगमत्तं पि पत्तो माणो किमिको पगेसु अणेयभयभिन्नेसु आििडऊन' तओ पंचिंदियत्तं पाउणइ; तत्थ वि खरकरहगोण महिसुट्टाइएस परिब्भमिऊण माणुसत्तणं; तत्थ वि य सगजवणसव रवव्वरकायमुरुंडोडुगोडाकारणमिति । धनेन भणितम् - भगवन् ! शोभनं ते निर्वेदकारणम् । कस्य वा सहृदयस्यान्यस्यापीदं न निर्वेदकारणम् ? ईदृश एष संसारः । तत आदिशतु भगवान्, यन्मया कर्तव्यमिति । यशोधरेण भणितम् - सौम्य | शृणु । दुर्लभा चरणधर्म सामग्री, यतो भणितं भगवता । द्विविधाः खलु जीवा भवन्ति, स्थावरा जङ्गमाश्च । तत्र स्थावराः पृथिवीजलज्वलनमारुतवनस्पतिकायभेदभिन्नाः । जङ्गमा पुनः कृमि - कीटपतङ्ग - गो-महिष- शरभ वृषभ - पसयादयः । तत्र स्थावरत्वमुपगतः पृथिव्यादिकेषु असंख्याताः, वनस्पती अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः परिवसति जीव इति । अतः स्थावरत्वाज्जङ्गमत्वं दुलर्भम् । जङ्गमत्वमपि प्राप्तः सन् कृमिकीटपतङ्गेषु अनेकभेदभिन्नेष्वाहिण्ड्य ततः पञ्चेन्द्रियत्वं प्राप्नोति । तत्रापि खरकरभगोमहिषोष्ट्रादिकेषु परिभ्रम्य मानुषत्वम्, तत्रापि च शक-यवन-शबर-बर्बर-क्राय मुरुण्डो-डू-गोडादिकेष्वा हिण्ड्यार्यदेशजम्म, तत्रापि ३२६ वैराग्य का कारण है ।" धन ने कहा - "भगवन् ! आपका वैराग्य का कारण ठीक है । किस सहृदय के लिए भी यह वैराग्य का कारण न होगा। यह संसार ऐसा ही है । अतः जो मेरे योग्य कार्य हो उसकी आज्ञा दीजिए।" यशोधर ने कहा - " सौम्य ! चारित्ररूपी धर्म की सामग्री दुर्लभ है; क्योंकि भगवान् ने कहा है- "दो प्रकार के जीव होते। हैं- स्थावर और जंगम । स्थावर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति काय के भेद से भिन्न-भिन्न होते हैं। पुन: जंगम कृमि, कीड़ा, पतंगा, गाय, भैंस, चीता, बैल, पसय (एक प्रकार का मृग ) आदि हैं । उनमें से स्थावर गति को प्राप्त हुए पृथ्वी आदि में असंख्यात में, वनस्पति में अनन्त हैं। जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में रहते हैं । अतः स्थावरगति से जंगम गति दुर्लभ है । जंगम अवस्था प्राप्त होने पर भी कृमि, कोड़ा, पतंगा आदि अनेक भेदों से भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण कर, अनन्तर पंचेन्द्रिय गति प्राप्त होती है । उसमें भी गधा, करभ, गाय, भैंसा, ऊँट आदि गतियों में भ्रमण कर मनुष्य गति प्राप्त होती है । मनुष्यगति में भी शक, यवन, शबर, बर्बर, काय, मुरुड, उण्डू, गौड आदि जातियों में भ्रमणकर आर्यदेश में जन्म होता है । आर्यदेश में भी चाण्डाल, १. थावरा भणिया तं जहाख, 2 उस्सप्पिणी - अवसष्पिणीउ विहरई वणस्सइकायाणं वणस्सइम्मि - ख, ३. अहिडितस्स पंचिदियत्तणं दुल्लहं हवइ । पंचिदियं पिपत्तो समाणो तत्थख ४ गोमहिसएसुख, ५. परिभमंतस्स माणुसत्तणं दुल्लहं हवइ, माणुस्स जम्मं पि पत्तो ममाणो तत्थ वियख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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