Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 385
________________ यो भयो ] ३२७ अहिदिओ रायधूयाए, बवावियं आसणं, उवविट्ठो अहह्यं । तओ मए भणियं - रायपुत्ति, अस्थि किंचि वत्तव्वं ति । तीए भणियं भणाउ अज्जो । मए भणियं - रायपुत्ति, देवसासणमिणं अवहियाए सोपव्वं ति तओ ती काऊण अंगुट्ठि ओयरिऊण आसणाओ 'जं गुरू आणवेइ' त्ति बद्धो अंजली। तओ मए भणियं -रायपुत्ति, इह आगच्छमाणस्स कुमारस्स साहुदंसणेणं समुप्पन्नं जाइस्सरणं, संभरिया य नव भवा सिद्धाय तेणं । ते सुणाउ भोई । अत्थि इहेव वासे विसाला नाम नयरी, तत्थ अमरदत्तो नाम नरवई हत्था, इओ य अतीयनवमभवस्मि तस्स पुत्तो सुरिददत्तो नाम अहमासि त्ति, जणणी मे जसोहरा, भज्जा यनयणावलिति । जाव एत्तियं जंपामि ताव मोहं गया रायधूया । आउलीहूओ परियणो; 'हा किमेयं' ति विसण्णो य अहयं । परिसित्ता चंदणपाणिएणं, लद्धा तीए चेयणा । मए भणियं - रायपुत्ति, किमेयं' ति ? तीए भणियं - 'विचित्तया संसारस्स' । मए भणियं - 'कहं विचित्तया' ? तोए भणियं-जओ सच्चेव अहं जसोहरा तस्स माया अईयपरियाए त्ति साहिऊण सिद्ध कुमारसाहियं निययचरियं । तओ मए भणियं - रायपुत्ति, इमिणा वइयरेण विरत्तं चित्तं भवचारगाओ कुमारस्स, इच्छइ खु सो प्रवेशित: सबहुमानं प्रतीहारेण, 'महाराजपुरोहितः' इत्यभिनन्दितो राजदुहित्रा, दापितमासनम् - उपविष्टोऽहम् । ततो मया भणितम् - राजपुत्रि ! अस्ति किञ्चिद् वक्तव्यमिति । तथा भणितम् - भणत्वार्यः । मया भणिनम् - राजपुत्रि ! देवशासनमिदमवहितया श्रोतव्यमिति । ततस्तया कृत्वा - saगुण्ठनमवतीर्यासनाद् 'यद् गुरुराज्ञापयति' इति बद्धोऽञ्जलिः ! ततो मया भणितम् - - राजपुत्रि ! इहागच्छतः कुमारस्य साधुदर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणम्, संस्मृताश्च नव भवाः, शिष्टाच तेन । तान् शृणोतु भवती । अस्ति इहैव वर्षे विशाला नाम नगरी । तत्रामरदत्तो नाम नरपतिरभवत् । इतश्चातीतनवमभवे तस्य पुत्रः सुरेन्द्रदत्तो नाम अहमासमिति । जननी मे यशोधरा । भार्यां च नयनावलिरिति । यावदेतावज्जल्पामि तावन्मोहं गता राजदुहिता । आकुलीभृतः परिजनः । 'हा 'किमेतद्' इति विषण्णश्चाहम् । परिपिक्ता चन्दनपानीयेन लब्धा तया चेतना । मया भणितम् - 'राजपुत्रि ! किमेतद्' इति । तया भणितम् - विचित्रता संसारस्य । मया भणितम - कथं विचित्रता ?' तया भणितम् - यतः सैवाहं यशोधरा तस्य मातातीतपर्याये इति कथयित्वा शिष्टं कुमारकथितं निजकचरितम् । ततो मया भणितम् - राजपुत्रि ! अनेन व्यतिकरेण विरक्तं चित्तं भवचारकात् के पास गया, द्वारपाल ने बहुत सम्मान के साथ प्रवेश कराया, 'महाराज के पुरोहित हैं - ऐसा सोचकर राजपुत्री ने अभिनन्दन किया, ( उसने) आसन दिलाया। मैं बैठ गया । तब मैंने कहा -- ' राजपुत्री ! कुछ कहना है ।' उसने कहा - "आर्य कहें। मैंने कहा - "राजपुत्री !” महाराज की आज्ञानुसार सावधान होकर यह सुनिए । तब उसने पर्दा कर आसन से उतरकर 'जो महाराज आज्ञा दें' कहकर अंजलि बाँध ली। अनन्तर मैंने कहा'राजपुत्री ! जब कुमार इधर आ रहे थे तो साधु के दर्शन से उन्हें जातिस्मरण हो गया। नौ भवों का स्मरण हो आया, कुमार ने उन्हें सुनाया। उन्हें आप सुनिए । इसी देश में विशाला नामक नगरी है। वहीं पर अमरदत्त नामक राजा हुआ। इससे पिछले नौवें भाव में मैं उनका पुत्र सुरेन्द्रदत्त था। मेरी माता यशोधरा थी, पत्नी नयनावली थी । जब यह कह रहा था, तभी राजपुत्री मूर्छित हो गयी। सेवक आकुल हो गये । 'हाय यह क्या है - इस प्रकार मैं खिन्न हो गया । उसके ऊपर चन्दन का जल सींचा गया, वह होश में आ गयी। मैंने कहा- 'राजपुत्री ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'यह संसार की विचित्रता है ।' मैंने कहा - 'कैसी विचित्रता ?' उसने कहा - 'क्योंकि पूर्व में में उसकी माता यशोधर थी" - ऐसा कहकर कुमार के द्वारा कहे हुए अपने चरित्र को कहा । तब मैंने कहा - "राजपुत्री ! इस घटना के कारण कुमार का चित्त संसार रूपी कारागार से विरक्त है, वह वीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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