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पानी भी
१२॥ अणाइभवन्भत्थमोहदोसेण अवियारिऊणायइं जंपियं ताएण-पुत्त, को पुत्तयस्स पणयभंग करेइ, सफलं चेव भवउ मणुयत्तणं; ता परिणेहि ताप एवं ईसाणसेणधयं । तो करेज्जासि सम्मं पयापरिवालणेण महंतं पुण्णखंघं ति। मए भणियं-ताय, विन्नत्तं मए तायस्स, विरत्तं मे चित्तं भवचारगाओ। ता अलं मे दारपरिग्गहेण । ताएण भणियं-पुत्त, को विय दोसो दारपरिग्गहस्स? मए भणियं-ताय, दारपरिग्गहो हि नाम निरोसहो वाही, जेण आययणं मोहस्स, अवचओ धिईए, सु(स) हा विक्खेवस्स', पडिवक्खो संतीए', भवणं मयस्स, वेरिओ सुद्धज्झाणाणं, पहवो दुक्खसमुदयस्स, निहणं सुहाणं, आवासो महापावस्स। पडिवज्जिऊण एवं पज्जरगया विय सोहा समत्था वि परलोयसाहणे माणुसभावलंभे वि सीयंति पाणिणो। अन्नं च -ताय, न जुत्तं रयणचित्तेणं कंचणथालेण पुरीससोहणं । पुरीससोहणमेत्ता य एत्थ विसया, अचिचिंतामणिसन्निहं च जिणवयणवोहसंगयं माणुसत्तणं, कम्मभूमी य एसा, परमपदसाहणं च चरणाणुट्टाणं । ता अलमन्नहावियप्पिएण । अणुजाणाहि भवाभ्यस्तमोहदोषेण अविचार्यायति जल्पितं तातेन । पुत्र ! कः पुत्रस्य प्रणयभङ्ग करोति, सफलमेव भवतु मनुजत्वम्, ततः परिणय तावदेतामोशानसेनदुहितरम्। ततः कुर्याः सम्यक् प्रजापालनेन महान्तं पुण्यस्कन्धमिति । मया भणितम्-तात ! विज्ञप्तं मया तातस्य, विरक्तं मे चित्तं भवचारकात्। ततोऽलं मे दारपरिग्रहेण । तातेन भणितम्-पुत्र क इव दोषो दारपरिग्रहस्य ? मया भणितम्-तात ! दारपरिग्रहो हि नाम निरौषधो व्याधिः, येनायतनं मोहस्य, अपचयो धृत्याः सभा विक्षेपस्य, प्रतिपक्षः शान्तः, भवनं मदस्य पैरिकः शुद्धध्यानानाम्, प्रभवो दुःखसमुदयस्थ, निधनं सुखानाम्, आवासो महापापस्य । प्रतिपद्यतं पञ्जरगता इव सिंहो समर्था अपि परलोकसाधने मनुष्यभावलम्भेऽपि सीदन्ति प्राणिनः। अन्यच्च-तात ! न युक्तं रत्नचित्रेण काञ्चनस्थालेन पुरीषशोधनम् । पुरीषशोधनमात्राश्चात्र विषयाः अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभं च जिनवचनबोधसंगतं मानुषत्वं कर्मभूमिश्चैषा, परमपदसाधनं च चरणानुष्ठानम् । ततोऽलमन्यथा विकल्पितेन । अनुजानोहि मे सकलदुःखविकुटनीं प्रव्रज्यामिति । ततो वाष्पाही मनुष्य जन्म को सफल करूं।" अनन्तर अनादि संसार में अभ्यास किये हुए मोह के दोष से भावीफल का विचार किये बिना पिताजी ने कहा-"पुत्र ! पुत्र की प्रार्थना को कौन भंग करता है, मनुष्य-जन्म सफल ही हो, अतः इस ईशानसेन की पुत्री से विवाह करो । अनन्तर भली-भांति प्रजा का पालन कर महान् पुण्य का बन्ध करो।" मैंने कहा-"पिता जी ! मैंने आपसे निवेदन कर दिया है कि मेरा चित्त संसाररूपी कारागार से विरक्त हो गया है। अतः मेरा स्त्री का ग्रहण करना व्यर्थ है।" पिताजी ने कहा-"पुत्र ! स्त्री के ग्रहण करने में क्या दोष है ?" मैंने कहा-"पिता जी ! स्त्री का परिग्रह रखना बिना औषधि का रोग है, यह मोह का आयतन (निवास) है, धैर्य का ह्रास है, भय की सभा है, शान्ति का विरोधी है, मद का भवन है, शुद्धध्यान का शत्रु है, दुःखों के समूह का उद्गमस्थल है, सुखों का अन्त है तथा महापाप का निवास है । स्त्री को प्राप्त कर पिंजड़े में बन्द सिंह के समान होते हुए प्राणी मनुष्य भव पाने पर भी दुःखी परलोक का साधन करने में असमर्थ रहते हैं। दूसरी बात यह भी है पिता जी कि 'रत्न से चित्रित सोने के थाल में मल का शोधन करना उचित नहीं है।" इस संसार में विषय मल का शोधन करने के समान है । जिनवचन रूपी ज्ञान से युक्त यह कर्मभूमि मनुष्यभव के लिए अचिन्त्य चिन्तामणि के समान है, चारित्र का पालन मोक्ष का साधन है । अतः विपरीत ढंग से सोचना व्यर्थ है।
१. विक्खोवस्स-क, 2. खंतीए-ख, ३. वियप्पेण-क-ग।
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