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[समराइच्चकहा
चंचू । एत्थंतरम्मि दिट्ठाई अम्हे कालदंडवासिएण | 'अहो इमाई राइणो खेल्लणजोगाई 'ति गहियाई तेण । उवणीयाइं च गुणहरस्स । परितुट्ठो राया । समप्पियाइं च णे एयस्स चेव कालदंडवासियस्स । भणिओ य एसो-अरे जत्थ जत्थ वच्चामि तत्थ तत्थ एयाइं आणेयव्वाइं । पडिस्सुयमण | अन्ना सयलंते उरपरियरिओ वसंतकीलानिमित्तं गओ कुसुमायरुज्जाणं राया । नीयाइं अम्हे तहि कालदंडवा सिएणं । ठिओ उज्जाणतिलयभूए बालकयलीहरयपरिक्खित्ते माहवीलयामंडवे राया । इयरो वि सह अम्हेहि गओ असोयवीहियं । दिट्ठो य तत्थ भयवं ससिस्सगणपरिवुडो' ससिप्पाभिहाणी आयरिओ ति । तओ अलियवंदणं करेंतो उवगओ साहुमूलं, धम्मलाहिओ तेणं । तओ तं तर्वासरिविरायंतदेहं दट्ठूणं आयण्णिऊण पयइसुंदरं तस्स वयणं उवसंतो विय एसो । भणियं चणे - भयवं; कीइसो तुम्हाण धम्मो ? भयवया भणियं - सुण
सयलसत्तसाहारणो एगो चेव धम्मो । मूढो य एत्थ अणहिगयसत्यपरमत्थो जणो भेए कप्पेइ । सो उन समासेण इमो - मगवयणकायजोगेहिं परपीडाए अकरणं, तहा सुपरिसुद्धस्स अणलियस्स गरुडचञ्चूसदृशी च मे चञ्चः । अत्रान्तरे दृष्टात्रावां कालदण्डपाशिकेन । 'अहो इमौ राज्ञः खेलनयोग्य' इति गृहीतौ तेन, उपनीतौ च गुणधरस्य । परितुष्टो राजा समर्पितो चावामेतस्यैव काल दण्डपाशिकस्य । भणितश्चैषः -- अरे यत्र यत्र व्रजामि तत्र तत्र एतावानेतव्यौ । प्रतिश्रुतमनेन । अन्यदा सकलान्तःपुरपरिवतो वसन्तक्रीडानिमित्तं गतः कुसुमाकरोद्यानं राजा । नीतावावां तत्र कालदण्डपाशिकेन । स्थित उद्यानतिलकभूते बालकदलीगृहपरिक्षिप्ते माधवीलतामण्डपे राजा । इतरोऽपि सहावाभ्यां गतोऽशोकवीथिकाम् । दृष्टश्च तत्र भगवान् स्वशिष्यगणपरिवृतः शशिप्रभा - भिधान आचार्य इति । ततोऽनीकवन्दनं कुर्वन् उपगतः साध मूलम् । धर्मलाभितस्तेन । ततस्तं तपःश्रीविराजदेहं दृष्टाऽकण्यं प्रकृतिसुन्दरं तस्य वचनमुपशान्त इवैषः । भणितं च तेन - भगवन् ! कीदृशो युष्माकं धर्मः ? भगवता भणितम् - शृणु ।
सकलसत्त्वसाधारण एक एव धर्मः । मूढश्चात्रानधिगतशास्त्रपरमार्थो जनो भेदान् कल्पयति । स पुनः समासेनायम् - मनोवचन काययोगः परपीडाया अकरणम्, तथा सुपरिशुद्धस्यानलीकस्य हुई और गरुड़ की चोंच के समान चोंच निकल आयी। इसी बीच राजा के कालदण्डपाशिक ( सेनापति ) ने हम लोगों को देखा । 'ओह! ये राजा के खेलने योग्य हैं' ऐसा मानकर उसने ले लिया और गुणधर के पास लाया । राजा सन्तुष्ट हुआ। हम दोनों को ( राजा ने इसी कालदण्डपाशिक को दे दिया और इससे कहा - "अरे ! जहाँ-जहाँ जाऊँ, वहाँ-वहाँ इन दोनों को ले आना ।" इसने स्वीकार किया । एक बार समस्त अन्तःपुर से घिरा हुआ राजा वसन्तक्रीड़ा के लिए कुसुमाकर उद्यान में गया। हम दोनों को वहाँ कालदण्डपाशिक (सेनापति) ले गया । उद्यान के तिलक के समान नवीन कदलीगृह से घिरे हुए माधवी लतामण्डप में राजा बैठा । कालदण्डपाशिकभी हम दोनों के साथ अशोकवीथी में गया । वहाँ अपने शिष्यगण के साथ बैठे हुए आचार्य शशिप्रभ को देखा । तब झूठा नमस्कार कर साधु के पास गया। साधु ने धर्मलाभ दिया । अनन्तर तपस्या की शोभा से शोभायमान उनका शरीर देखकर उनके स्वाभाविक रूप से सुन्दर वचनों को सुनकर यह शान्त-सा हो गया । उसने कहा—“भगवन् ! आपका धर्मं कैसा है ?" भगवान् ने कहा - 'सुनो !
समस्त प्राणियों के लिए सामान्यतः धर्म कल्पना करता है । वह संक्षिप्त रूप से यह है
एक है । मूढ़ व्यक्ति शास्त्र के परमार्थ को न जानकर भेद की मन, वचन और काययोग से दूसरे को पीड़ा न पहुँचाना, अच्छी
१, खेलयण ``क, 2, सुसिस्सख, ३. सुणउ भद्दो- ख ।
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