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(समराइचकहा
अगविजओ ति । ता धन्नो खु एसो दट्ठव्वो पज्जुवासणिज्जो य । गओ तस्स समोवं । वंदिओ ण--- भयवं जसोहरो सेससाहुणो य। दिन्नो से गुरुणा धम्मला हो सेससाहूहिय उवविट्ठो गुरुपायमूले । भणियं च ते भयवं, किं पुण ते निव्वेयकारणं, जेण तुमं रूवि व्व पंचवाणो विसदसुमवहत्थि ऊण पवज्जं पन्नोसि ? जोहरेण भणियं एगंतनिव्वेय कुलहराओ संसाराओ वि अवरं निव्वेयकारणं ति ? धणेण भणियं - भयवं, सयलजणसाहारणो खु एस संसारो; अओ विसेसकारणं पुच्छामि । जसोहरेण भणियं-विसेसो वि सामन्नमज्झगओ चेव, तहावि निययमेव चरियं मे निव्देयकारणं ति । धणेण भणियं करेउ भयवं अणुग्गहं, कहेउ अम्हाणं पि निव्वेयकारणं निययचारयं ति । तओ जसोहरेण 'कल्लाणागिई पसंतरुवो य एसो कयाइ निव्वेयमुवगच्छइ' त्ति चितिऊण भणियं - सोम ! जइ एवं, ता सुण ।
अfor sea वासे विसाला नाम नयरी । तत्थ अमरदत्तो नाम नरवई होत्था । इओ य अतीयनवमभवम्मितस्स पुत्तो सुरिददत्तो नाम अहमासि त्ति । जणणी य मे जसोहरा, भज्जा य नयणावलि
अहो ! विषयनिष्पिपासता, अहो ! अस्य यौवनम्, अहो ! अनङ्गविजय इति । ततो धन्यः खल्वेष द्रष्टव्यः पर्युपासनीयश्च । गतस्तस्य समोपम् । वन्दितस्तेन भगवान् यशोधरः शेषसाधवश्च । दत्तस्तस्मै गुरुणा धर्मलाभः, शेषसाधुभिश्च । उपविष्टो गुरुपादमूले । भणितं च तेन - किं पुनस्ते निर्वेदकारणम्, येन त्वं रूपीव पञ्चवाणो विषयसुखमपहस्तयित्वा प्रव्रज्यां प्रपन्नोऽसि ? यशोधरेण भणितम् - एकान्त निर्वेदकुलगृहात् संसारादपि अपरं निर्वेदका रणमिति ? धनेन भणितम् - भगवन् ! सकलजनसाधारणः खल्वेष संसारः, अतो विशेषकारणं पृच्छामि । यशोधरेण भणितम् - विशेषोऽपि सामान्यमध्यगत एव, तथापि निजकमेव चरितं मम निर्वेद कारणमिति । धनेन भणितम् - करोतु भगवान् अनुग्रहम्, कथयतु अस्माकमपि निर्वेदका रणं निजकचरितमिति । ततो यशोधरेण 'कल्याणाकृतिः प्रशान्तरूपश्चैष कदाचिद् निर्वेदमुपगच्छति' इति चिन्तयित्वा भणितम – सौम्य ! यद्येवं
ततः शृणु ।
अस्ति इहैव वर्षे विशाला नाम नगरी । तत्रामरदत्तो नाम नरपतिरभूत् । इतश्चातीत नवमभवे तस्य पुत्रः सुरेन्द्रदत्तो नामाहमासमिति । जननी च मम यशोधरा, भार्या च नयनावलि -
यौवन तथा कामविजय आश्चर्य उत्पन्न करने वाली हैं । अतः इनका दर्शन धन्य है और (ये) उपासना करने योग्य हैं । उनके समीप में (धन) गया । उसने भगवान् यशोधर और शेष साधुओं की वन्दना की । गुरु ने और शेष साधुओं ने उसे धर्मलाभ दिया । ( वह) गुरु के चरणों में बैठा । उसने कहा - " आप के वैराग्य का क्या कारण है जो कि कामदेव के समान शरीर को धारण करके भी विषय सुखों को छोड़कर दीक्षित हो गये ?" यशोधर ने कहा - "एकान्त रूप से, जो वैराग्य का कुलगृह है, ऐसे संसार को छोड़कर कोई दूसरा भी वैराग्य का कारण है ?” धन ने कहा - "भगवन् ! यह संसार तो सभी के लिए समान है, अतः विशेष कारण पूछता हूँ ।" यशोधर ने कहा - " विशेष भी सामान्य के मध्य में ही होता है, फिर भी मेरा अपना चरित ही वैराग्य का कारण है ।" धन ने कहा- "भगवन् ! कृपा करें, हम लोगों को भी वैराग्य का कारण अपना चरित कहें ।" तब यशोधर ने 'यह कल्याण आकृति और शान्त रूप वाला है, कदाचित् (यह भी ) वैराग्य को प्राप्त हो' - ऐसा सोचकर कहा - " सौम्य ! यदि ऐसा है तो सुनो-
इसी देश में 'विशाला' नामक नगरी है ।" वहाँ पर अमरदत्त नाम का राजा हुआ । इससे पहले के नवें भाव में मैं उसका पुत्र सुरेन्द्रदत्त था । मेरी माता 'यशोधरा' थी और पत्नी 'नयनावली'। मेरे पिता मुझे राज्य
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