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[ समर इच्च कहा
सि । तओ कइवयदियहि पत्तो सार्वोत्थि । दिट्ठो नरवई, परितुट्ठो हियएण, साहिओ वृत्तंतो नरवइस्स । देव, इमिणा पयारेण लद्धा रयणावली दंसिया य | विम्हिओ राया । 'अहो विचित्तया कज्जपरिणईणं' ति चितिऊण भणियं च तेण - भद्द, तुह चेव मए एसा संपाडिय त्ति, न कायव्वो मे पणयभंग | अहवा साहारणं चेव ते एयं रज्जं पि, कि संपाडीयइ त्ति ? । तओ अइक्कंतेसु कइवयदिणेसु काऊण महामहंतं सत्यं भरिऊण विचित्तभंडस्स दाऊण नाणामणिरयणसारमण ग्धेयमाहरणं उचियवाणियगवेसेणेव पेसिओ सुसम्मणयरं धणो ति ।
पत्तो कालक्कमेणं, विन्नाओ जणेण । परितुट्टो से गुरुजणो, निग्गओ पच्चोणि । दिट्ठो य जणणिजण एहि, निवडिओ चलणेसु तेसि, अभिनंदिओ जणणिजणएहि । कया सव्वाययणेसु पूया; दिन्नं महादाणं, पवेसिओ नरिंदेण सम्माणिऊण महया विभूईए । कयं च गुरुहं महोच्छ्वभूयं aaraणयं ति । परिक्के पुच्छिओ धणसिरिवृत्तंतं जणणिजणएहिं । साहिओ तेण । विम्हिया
जिया । भणियो य तेहि-वच्छ, अलं तीए । अणुचिया खुसा पावकम्मा भवओ । न रेह तैर्वृत्तान्तोऽस्मै, अनेनापि च तेभ्यः । ततः कतिपयदिवसः प्राप्तः श्रावस्तीम् । दृष्टो नरपतिः परितुष्टो हृदयेन । कथितो वृत्तान्तो नरपतये - देव ! अनेन प्रकारेण लब्धा रत्नावली, दर्शिता च । विस्मितो राजा । 'अहो विचित्रता कार्यपरिणतीनाम् ' - इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भद्र ! तवैव मयैषा सम्पादितेति न कर्तव्यो मे प्रणयभङ्गः । अथवा साधारणमेव तवैतद् राज्यमपि किं सम्पाद्यते इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु कृत्वा अतिमहान्तं सार्थं भृत्वा विचित्रभाण्डं दत्त्वा नानामणिरत्नसारमध्यमाभरणमुचितवाणिजकवेशेणैव प्रेषितः सुशर्मनगरं धन इति ।
प्राप्तः कालक्रमेण, विज्ञातो जनेन । परितुष्टस्तस्य गुरुजनो, निर्गतः सम्मुखम् । दृष्टश्च जननीजनकाभ्याम् । निपतितश्चरणेषु तयोः । अभिनन्दितो जननीजनकाभ्याम् । कृता सर्वायतनेषु पूजा, दत्तं महादानम्, प्रवेशितो नरेन्द्रेण सन्मान्य महत्या विभूत्या । कृतं च गुरुभिर्महोत्सवभूतं वर्धापनकमिति । प्रतिरिक्ते पृष्टो धनश्रीवृत्तान्तं जननीजनकाभ्याम् । कथितस्तेन । विस्मितो जननीजनको । भणितश्च ताभ्याम् - वत्स ! अलं तया अनुचिता खलु सा पापकर्मा भवतः । न
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वृत्तान्त कहा। इसने भी उन लोगों से वृत्तान्त कहा। तब कुछ दिन में श्रावस्ती आ गये । राजा ने देखा (वह) हृदय से सन्तुष्ट हुआ । (धन ने ) राजा से वृत्तान्त कहा - "महाराज ! इस प्रकार रत्नावली प्राप्त हुई ।” और (रत्नावली को ) दिखाया। राजा विस्मित हुआ 'ओह कर्म की परिणति विचित्र है - ऐसा सोचकर उसने कहा - "भद्र ! तुम्हारे लिए ही मैंने इसे प्राप्त किया है, अतः मेरी प्रार्थना भंग मत करो । अथवा यह राज्य भी तुम्हारा है और क्या प्रस्तुत करूँ ? " तब कुछ दिन बीत जाने पर बहुत बड़े समूह को बनाकर नाना प्रकार के माल को भरकर अनेक प्रकार के मणि और रत्नों से युक्त अमूल्य आभरण देकर वणिक् के उचित वेश में ही धन को सुशर्मनगर भेजा ।
कालक्रम से (धन) पहुँचा, लोगों को मालूम हुआ । उसके माता-पिता सन्तुष्ट हुए और सामने निकले ( आये) । (धन ने ) माता-पिता को देखा । ( वह) उन दोनों के चरणों में जा गिरा। माता-पिता ने अभिनन्दन किया। सभी मन्दिरों (आयतनों) में पूजा की, महादान दिया। राजा ने सम्मानित कर बड़ी विभूति के साथ प्रवेश कराया। माता-पिता ने बहुत बड़ा उत्सव किया। माता-पिता ने एकान्त में धनश्री का वृत्तान्त पूछा । धन ने बताया । माता-पिता दोनों विस्मित हुए । उन्होंने कहा - " वत्स ! उससे बस अर्थात् उससे क्या लाभ
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