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[समपाकहा
खणलवपडिवुज्झणया सद्धा-संवेगफासणा तह य । चित्तेण निरीहेणं मेत्ती वि य सव्वजीवेसु ॥२६३॥ एयं च से विऊणं धम्म जिणदेसियं सुसीलमयं । सुगइं पावंति नरा ठएंति सइ दुग्गइदुवारं ॥२६४॥ एसो उ सीलमइओ भणिओ धम्मो जिणेहि सव्वेहि । सावय ! परमगुरूहि दुज्जयजियरागदोसेहिं ।।२६५।। भण्णइ तवोमइओ स बाहिर-ऽभंतरस्स य तवस्स । जमणुट्ठाणं कोरइ असेसकम्मक्खयनिमित्तं ॥२६६॥ अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलोणया य वज्झो तवो होइ ॥२६७॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य अभितरओ तवो होइ ॥२६॥
क्षणलवप्रतिबोधनता श्रद्धा-संवेगस्पर्शना तथा च । चित्तेन निरीहेण मैत्री अपि च सर्वजीवेषु ॥२६३॥ एवं च सेवित्वा धर्म जिनदेशितं सुशीलमयम् । सुगति प्राप्नुवन्ति नराः, स्थगयन्ति सदा दुर्गतिद्वारम् ॥२६४॥ एष तु शीलमयो भणितो धर्मो जिनैः सर्वैः । श्रावक ! परमगुरुभिर्दुर्जयजितराग-द्वेषैः ॥२६५।। भण्यते तपोमयः सबाह्या-ऽभ्यन्तरस्य च तपसः । यद् अनुष्ठानं क्रियते अशेषकर्मक्षयनिमित्तम् ॥२६॥ अनशनमूनोदरिका वृत्तिसंक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनता च बाह्य तपो भवति ॥२६७।। प्रायश्चित्तं विनयो वैयावत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानमुत्सर्गोऽपि च आभ्यन्तरं तपो भवति ॥२६॥
'क्षण और निमेष में प्रतिबद्ध रहने, श्रद्धा और संवेग के प्रति लगाव तथा कामना रहित मन से समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखना-इस प्रकार जिनेन्द्रभाषित सुशीलमय धर्म का सेवन कर मनुष्य सुगति प्राप्त करते हैं और दुर्गति के द्वार को सदा रोकते हैं । श्रावक ! कठिनाई से जीतने योग्य, रागद्वेष को जीतने वाले, परमगुरुभूत समस्त जिनों ने यह शीलमय धर्म कहा है । अब बाह्य और आभ्यन्तर तपरूप जो धर्म है वह कहा जाता है, जिसका अनुष्ठान समस्त कर्मों के क्षय के लिए किया जाता है । अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता में बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग-आभ्यन्तर तप हैं ॥२६३-२६॥
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