________________
२२॥
तहमो भयो ।
जेणं चिय उद्दामो हिंडई एसो जयम्मि अक्खलिओ। तेणं चिय सप्पुरिसा लग्गा परलोगमग्गमि ॥३२२॥ कालेण रूढपेम्मे परोप्परं हिययनिव्वडियभावे। अकलुणहियओ एसो विच्छोवइ सत्तसंघाए ३२३॥ न गणेइ कयाऽवकयं नावेक्खइ भावगम्भिणं पेम्मं । न य जोएइ अणज्जो आयइभावं पि मत्तो व्व ॥ ३२४॥ ता नस्थि किंचि सरणं एतेण अभियाण जीवाणं । सयलम्मि वि तेलोक्के मोत्तूणं जिणमयं परमं ॥ ३२५॥ एवं च अंब! जुत्तं तुझ वि चइऊण मोहविसयरसं।
पाउं अच्चंतसुहं इणमो धम्मामयं चेव ॥३२६॥ एवं च भणिए समाणे समायं चेव भणियं जालिणीए-जाय ! देहि मे अवत्थोचियाई वयाई । तओ आलोचिऊण संपुण्णचरणाखमं तोए परिणामं संसिऊण सवित्थर गिहिधम्म दिन्नाणि
येनैव उद्दामो हिण्डते एष जगति अस्खलितः । तेनैव सत्पुरुषा लग्नाः परलोकमार्गे ॥३२२॥ कालेन रूढप्रेम्णः परस्परं हृदयनिर्वतितभावान् । अकरुणहृदय एष विच्छोटयति सत्त्वसंघातान् ।।३२३॥ न गणयति कृताऽपकृतं नापेक्षते भावगभितं प्रेम । न च पश्यति अनार्य आयतिभावमपि मत्त इव ।।३२४॥ ततो नास्ति किंचित् शरणमेतेन अभिद्रुतानां जीवानाम् । सकलेऽपि त्रैलोक्ये मुक्त्वा जिनमतं परमम् ॥३२॥ एवं च अम्ब ! युक्तं तवाऽपि त्यक्त्वा मोहविषयरसम् ।
प्राप्तुमत्यन्तसुखमिदं धर्मामृतमेव ॥३२६।। एवं च भगिते सति समायमेव भणितं जालिन्या-जात ! देहि मम अवस्थोचितानि व्रतानि । तत आलोच्य सम्पूर्णचरणाऽक्षमं तस्याः परिणामं शंसित्वा सविस्तरं गृहिधर्म दत्तानि तस्यै अणु
चंकि यह मत्यू-सिंह अस्खलित रूप से (स्वच्छन्द रूप से) इस संसार में घूमता रहता है. इसीसे सज्जन परुष परलोक के मार्ग में संलग्न रहते हैं। समय-समय पर जिनका प्रेम बढ़ता रहता है और जिनके हदय भावों से भरे ऐसे प्राणियों के समूह को यह निर्दय हृदय वाली मत्यू परस्पर अलग कर देती है। न तो यह कत. अपकत को गिनती है, न भाव पूर्ण प्रेम की अपेक्षा करती है, न मतवाले के समान अनार्य और आर्यभाव को देखती है। अतः इससे भयभीत जीवों का समस्त तीनों लोकों में श्रेष्ठ जिनधर्म को छोड़कर दूसरा कुछ भी शरण नहीं है । अतः हे माता ! तुम भी अत्यन्त सुखरूप इस धर्मामृत का पान करने के लिए मोहरूपी विषय के रस को त्याग दो ॥३२२-३२६॥
ऐसा कहने पर जालिनी ने मायापूर्वक कहा-"पुत्र ! मुझे अवस्था के योग्य व्रत दो। उसके परिणामों को सकलाचरण में असमर्थ जानकर विस्तृत रूप से, गृहस्थ धर्म की शिक्षा देकर अणुव्रत दिये उसे मारने हेतु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |