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हो भयो]
भणियं च
भणितं च
इमिणा जम्मे अंबाए संकिलेसजणएणं । अहवा एवंविह एव एस पावो त्ति संसारो ॥ ३३१॥
पावेंति अयसपंकं केवि ह अकए वि एत्थ दोसम्मि । परभवनियाणओ च्चिय केइ न पावेंति हु कए वि ॥ ३३२ ॥ जं चित्ता कम्मगई ता एयं चिय इमीए पच्छितं । पुवि दुच्चिण्णाणं फलमसुहं चैव कम्माणं ॥ ३३३॥ अहवा न सोयणिज्जा संपयमेसा वि जीवलोयम्मि । सिवसुफल कप्पतरुं जिणधम्मं पाविया जेण ॥ ३३४॥ ता सुमरामो परमं परमपयसाहगं जिणवखायं । अह प नमोक्कारं संपइ कि सेसचिताए ॥ ३३५ ॥ तो सो सुहपरिणामो पंचनमोक्कारभावणाजुत्तो । मरिऊणं उववन्नो तियसवरो बंभलोग म्मि ॥ ३३६ ॥ धिगनेन जन्मना अम्बायाः संक्लेशजनकेन । अथवा एवंविध एव एष पाप इति संसारः ॥३३१॥
प्राप्नुवन्ति अयशः पङ्क केsपि खलु अकृतेऽपि अत्र दोषे । परभवनिदानत एव केचिद् न प्राप्नुवन्ति खलु कृतेऽपि ॥ ३३२ ॥ यत् चित्रा कर्मगतिः तत एतदेव अस्याः प्रायश्चित्तम् । पूर्वं दुश्चीर्णानां फलमशुभमेव कर्मणाम् ।। ३३३॥ अथवा न शोचनीया साम्प्रतमेषाऽपि जीवलोके । शिवसुखफलकल्पतरुं जिनधर्मं प्रापिता येन ॥ ३३४॥ ततः स्मरामः परमं परमपदसाधकं जिनाख्यातम् । अथ पञ्चनमस्कारं सम्प्रति किं शेषचिन्तया ॥ ३३५ ॥ ततः स शुभपरिणामः पञ्चनमस्कार भावनायुक्तः । मृत्वा उपपन्नः त्रिदशवरो ब्रह्मलोके ॥ ३३६||
माता के संक्लेशजनक इस जन्म को धिक्कार हो अथवा यह पापी संसार ऐसा ही है । । ३३१||
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कहा भी है
इस संसार में कुछ लोग दोष न करने पर भी अपयश रूपी कीचड़ को प्राप्त करते हैं । कुछ लोग दोष करने पर भी परभव के निदान से अपयश को प्राप्त नहीं करते हैं । कर्म की गति विचित्र है, अतः इसका प्रायश्चित्त यही है । पहले किये हुए खोटे कर्मों का फल अशुभ ही होता है । अथवा मोक्षसुख रूप जिसका फल है ऐसे जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष को जिसने पा लिया है उसको इस संसार में अब ऐसा नहीं सोचना चाहिए । अतः जिनोपदिष्ट उत्कृष्ट, मोक्ष सुख के साधक पंचनमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हूँ, शेष की चिन्ता से क्या लाभ ? तब शुभपरिणाम वाला वह पंचनमस्कार मन्त्र से युक्त हो, मरकर ब्रह्मलोक में श्रेष्ठ देव हुआ ।। ३३२-३३६ ।।
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