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[समराइचकहा धूया, अन्नहा कहमेवमेयं जुज्जइ त्ति । कोहाभि भएणा विअच्चंतनयाणुसारिणा पुणो वि पुच्छाविओ ति। धणे पणो वितं चेव साहियं । तओ राइणा पुणो वि रयणावलिं निएऊण पच्चभिन्नाणेण अहिययरं कुविएण 'न एयमन्नहा हवइ' ति वज्झो समाणत्तो। तओ य तणमसिविलित्तगत्तो वज्जतविरसडिटिमो अवराहथावणत्थं च पडलिगानिमियरयणावली पयट्टाविओ वज्झथामं । तओ नीयमाणस्स हट्टमग्गावसेसे मंसाहिलासिता ओलावएण 'मंसमेयं' ति कलिऊण अवहरिया रयणावली, नीया सनीडं। धणो वि य अहिययरं कुविएहिं रायपरिसेहिं नीओ मसाणं ति । तं च केरिसं
सुक्कपायवसाहानिलोणवायसं वायसरसंतकरयररवं रवंतसिवानायभीसणं भीसणदरदड्ढमडयदुरहिगंधं गंधवसालुद्धरुरुवेंतसाणं साणकंकालनिवहभासुरं भासुरकवायपीइजणयं ति । अवि य
पुरओ पत्थियदंडो उग्गाहियकालचक्कदुव्वारो।
कलिकालवन्हिसरिसो कालो वि जहिं छलिज्जेज्जा ॥३५१॥ वाऽनेन मे दुहिता अन्यथा कथमेवमेतद् युज्यते इति ? क्रोधाभिभूतेनापि अत्यन्तनयानुसारिणा पुनरपि पृष्ट इति । धनेन पुनरपि तदेव कथितम् । ततो राज्ञा पुनरपि रत्नावलि दृष्टा पत्यभिज्ञानन अधिकतरं कुपितेन 'नैतदन्यथा भवति'-- इति वध्यः समाज्ञप्तः। ततश्च तृणमषीविलिप्तगात्रो वाद्यमानविरसडिण्डिमोऽपराधस्थापनार्थं च पटलिकान्यस्तरत्नावलिःप्रवर्तितो वध्यस्थानम् । ततो नीयमानस्य हट्टमार्गावशेषे मांसाभिलाषिणा श्येनेन 'मांसमेतद्' इति फलयित्वाऽपहृता रत्नावलो, नीता स्वनीडम् । धनोऽपि चाधिकतरं कुपितैः राजपुरुषैर्नीतो श्मशानम्-इति । तच्च कीदृशम्
शुष्कपादपशाखानिलीनवायसं वायसरसत्करकररवं रुवच्छिवानादभीषणं, भीषणदर(ईषद्) दग्धमृतकदुरभिगन्धं गन्धवसालुब्धरोख्यमाणश्वानं श्वानकङ्कालनिवहभासुरं भासुरक्रव्यादप्रीतिजनकमिति । अपि च--
पुरतः प्रस्थितदण्ड उद्ग्राहितकालचक्रदुर्वारः।
कलिकालवह्निसदृशः कालोऽपि यत्र छल्येतत् ॥३५१॥ तब राजा ने विचार किया-इसने मेरी पुत्री को या तो मार डाला या चुरा लिया, अन्यथा यह कैसे ठीक होता? क्रोध से अभिभूत होने पर भी अत्यन्त नीति के अनुसार पुनः पूछा। धन ने पुन: वही कहा । तब राजा ने रत्नावली को पुनः देखकर पहिचानने के कारण अत्यधिक कुपित हो 'यह दूसरी नहीं हो सकती' ऐसा कहकर वध की आज्ञा दे दी। तब का जल से मुँह का लेपन कर अपराध को जताने के लिए नीरस डिण्डिमनाद बजाते हुए, पहिया पर रत्नावली रखकर वधस्थान की ओर (इसे) लाया गया। तब बाजार के विशेष मार्ग में ले जाते हुए मांस के
लाषी बाज पक्षी ने 'यह मांस है यह मानकर रत्नावली का अपहरण कर लिया और अपने घोंसले को ले गया । धन भी अत्यधिक कुपित राजपुरुषों के द्वारा श्मशान में ले जाया गया। वह श्मशान कैसा था -
जहाँ सूखे वृक्ष की डाली पर बैठा कौआ कांव-कांव की आवाज कर रहा था, रोती हुई शृगालियों के शब्द से भीषण था, कुछ जलाये मुर्दे की भीषण गन्ध आ रही थी, गन्ध के कारण चर्बी के लोभी कुत्ते रो रहे थे, वह स्थान कुत्तों के कंकालसमूह से देदीप्यमान था तथा कच्चा मांस खाने वाले चमकने (हिंसक जन्तुओं) के लिए श्रीति उत्पन्न करने वाला था। पुनश्च
आगे प्रस्थान करते हुए सैनिकों ने भयंकर कठिनाई से रोका जाने वाला कालचक्र ले रखा था। कलियुग की आग के समान काल भी जहां इन लोगों के द्वारा ठगा गया था ।।३५१॥
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