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सइओ भवो ]
arणाओ एगस्स तक्करस्स सरीरयं संवत्तुव्वत्तयं करेंतेण वि मग्गिओ जीवो, न य दिट्ठो । तओ से सरीरयं खंड खंडाई' करेंतेण पुणो वि मग्गिओ, न य दिट्ठोत्ति । अओ अवगच्छामो-न अन्नो जीवो । भयवया भणियं - भद्द ! जं किचि एयं । सुण, इहेगेण मणुस्सेण अणि संवत्तुव्वत्तयं करेंतेण वि afrओ अग्गी, न य दिट्ठो । तओ तेण अणि खंडखंडाइ करेंतेग पुणो वि मग्गिओ, न य दिट्ठोत्ति । ता किं सो न तम्मि अस्थि त्ति ? अह मन्नसे नत्थि त्ति, एवं तओ अणुप्पायपसंगो ।
एवं च भणिए उत्तरप्पयाणाभावेण विलियमिव पिंगकं पेच्छिऊण भणियं भयवया-ता एवं रुक्खसाहापयलणनिमित्तपवणो व्व अदिस्समाणो वि चक्खुणा सरीरचेट्टानिमित्तभूओ जीवो अस्थि ति सद्धेयं । अह मन्नसे, पवणो फासिदिएण घेप्पइ । हंत! जीवो वि चित्तचेयणाइधम्माणुहवेण घेप्पइ ति । भणियं च -
चित्तं चेयण सन्ना विन्नाणं धारणा य बुद्धी य । ईहा मई वियक्का जीवस्स उ लक्खणा एए ॥ ३०६ ॥
मित्रेण मम कालदण्डपाशिकेन मम वचनाद् एकस्य तस्करस्य शरीरकं संवर्तोद्वर्तकं कुर्वताऽपि मार्गितो जीवः, न च दृष्टः । ततस्तस्य शरीरकं खण्डखण्डानि कुर्वता पुनरपि मार्गितः न च दृष्ट इति । अतोऽवगच्छामः -न अन्यो जीवः । भगवता भणितम् - भद्र ! यत् किञ्चिद् एतत् । शृणु, इहैकेन मनुष्येण अणि संवर्तोद्वर्तकं कुर्वताऽपि मार्गितोऽग्निः, न च दृष्टः । ततस्तेन अरणि खण्डखण्डानि कुर्वता पुनरपि मार्गितः, न च दृष्ट इति । ततः किं स न तस्मिन्नस्ति इति ? अथ मन्यसे नास्तीति । एवं ततोऽनुत्पादप्रसङ्गः ।
एवं च भणिते उत्तरप्रदानाभावेन व्यलीकं ( लज्जितम् ) इव पिङ्गकं प्रेक्ष्य भणितं भगवता - तत एवं वृक्षशाखाप्रचलन निमित्तपवन इव अदृश्यमानोऽपि चक्षुषा शरीरचेष्टानिमित्तभूतो जीवोऽस्ति इति श्रद्धेयम् । अथ मन्यसे, पवनः स्पर्शेन्द्रियेण गृह्यते । हन्त ! जीवोऽपि चित्तचेतनादिधर्मानुभवेन गृह्यत इति । भणितं च-
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चित्तं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च ।
हा मतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणानि एतानि ॥ ३०६ ॥
इसी नगर में मेरे मित्र कालदण्डपाशिक ने मेरे कथनानुसार एक चोर के शरीर को हिला-डुलाकर जीव देखा, किन्तु नहीं दिखाई दिया । तब उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर पुनः जीव देखा किन्तु दिखाई नहीं दिया, अतः जीव नहीं है । भगवान् ने कहा "भद्र ! एक बात यह है- सुनो, यहाँ पर एक मित्र ने लड़ी को हिला-डुलाकर अग्नि देखी किन्तु दिखाई नहीं दी । तब उसने लकड़ी के खण्ड-खण्डकर पुनः अग्नि खोजी किन्तु वह न मिला । तो क्या वह उसमें नहीं है ? यदि मानते हो नहीं है तो पुनः उससे कभी अग्नि की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।"
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ऐसा कहने पर उत्तर न दे पाने के कारण लज्जित हुए पिगक को देखकर भगवान् ने कहा - "वृक्षों की शाखाओं को चलाने में जैसे पवन निमित्त है, उसी प्रकार शरीर की चेष्टा का कारण जीव है, जो कि नेत्रों से दिखाई नहीं देता । ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए। यदि मानते हो कि वायु स्पर्शन से ग्रहण की जाती है तो जीव भी चित्त चेतनादि धर्म के अनुभव से ग्रहण किया जाता है। कहा भी है
चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति और वितर्क ये जीव के लक्षण हैं ॥ ३०६ ॥
१. खंडाई क ।
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