________________
पीसो भयो]
भवओ समप्पियं, न पुण अन्नह' ति । तओ अवगया मे संथा। एत्थंतरम्मि य जाणावियं चंदणसत्थवाहेण राइणो, जहा 'देव ! गेहं मे मट्ट"ति । 'किमवहरिय'ति पुच्छ्यिं राइणा। 'निवेइयं चंदणेणं लिहावियं च राइणा, भणियं च णेण -- 'अरे ! आघोसेह डिडिमेणं, जहा-मुट्ठ चंदणसत्थवाहगेहं, अवहरियमेयं रित्थजायं । ता जस्स गेहे केणइ ववह रजोएण तं रित्थं रित्थदेसो वा समागओ, सो निवेएउ राइणो चंडसासणस्स । अणिवेइओवलंभे य राया सव्वधणावहारेण सरीरदंडेण य नो खमिस्सइ त्ति । तओ पयट्टमाघोसणं । अइक्कते य तम्मि' गएस पंचसु दिणेसु जाणावियं जन्नदेवेण राइणो । जहा-'देव ! न जुत्तं चेव मित्तदोसपयासणं, कि तु परलोयइहलोयविरुद्धसेविणा अहियायरणेण अत्तणो वि य अमित्तेण अलं मे मित्तेणं । न उवेक्खियव्वं जाणंतेणं रायजणाहियं । अओ ईइसं पि देवस्स निवेईयइ ।' राइणा भणियं-'भणाउ अज्जो। जन्नदेवेण भणियं-- 'देव ! सुण । सुयं मए चक्रकदेवासन्नपरियणाओ, जहा इमं चंदणसत्थवाहगेहं चक्क देवेण मुटुं, संगोवियं रित्थं निययगेहे ।
समर्पितम्, न पुनरन्यथेति । ततोऽपगता मे शङ्का । अत्रान्तरे च ज्ञापितं चन्दनसार्थवाहेन राज्ञः, यथा 'देव ! गेहं मे मुष्टम्' इति । 'किमपहृतम्' इति पृष्टं राज्ञा । निवेदितम् चन्दनेन, लेखितं च राज्ञा । भणितं च तेन-'अरे ! आघोषय डिण्डिमेन, यथा---मुष्टं चन्दनसार्थवाहगहम्, अपहृतमेतद् रिक्थजातम् । ततो यस्य गेहे केनचिद् व्यवहारयोगेन तद् रिक्थं रिक्थदेशो वा समागतः, स निवेदयतु राज्ञश्चण्डशासनस्य । अनिवेदितोपलम्भे च राजा सर्वधनापहारेण शरीरदण्डेन च नो अमिष्यते' इति । ततः प्रवृत्तमाघोषणम् । अतिक्रान्ते च तस्मिन् गतेषु पञ्चसु दिनेषु ज्ञापितं यज्ञदेवेन राज्ञः। यथा--'देव ! न युक्तमेव मित्रदोषप्रकाशनम् , किन्तु परलोकेहलोकविरुद्धसेविना अहिताचरणेन आत्मनोऽपि चामित्रेण अलं मे मित्रेण । नोपेक्षितव्यं जानता राजजनाऽहितम् । अत ईदृशमपि देवस्य निवेद्यते ।' राज्ञा भणितम्-'भणतु आर्यः।' यज्ञदेवेन भणितम्-'देव ! शृणु । श्रुतं मया चक्रदेवासन्नपरिजनात्, यथेदं चन्दनसार्थवाहगेहं चक्रदेवेन मुष्टम्, संगोपितं रिक्थं निजकगेहे।' एवं
दूर हो गयी। इसी बीच में चन्दन व्यापारी ने राजा को बतलाया, “महाराज ! मेरे घर में चोरी हो गयी।" "क्या चुरा लिया गया ?" यह राजा ने पूछा । चन्दन ने निवेदन किया, राजा ने लिखवाया। उसने कहा, "अरे डोंडी बजाकर घोषणा करवाओ कि चन्दन व्यापारी के घर में चोरी हो गयी और यह धन चोरी गया है। जिसके घर किसी व्यापारी के माध्यम से वह धन या उसका अंश आया हो, वह राजा चण्डशासन से निवेदन करे । यदि किसी ने नहीं बतलाया और बाद में उसी के घर प्राप्त हुआ तो राजा उसके समस्त धन का अपहरण कर लेगा, उसे शारीरिक दण्ड देगा, उसे क्षमा नहीं किया जायगा।" तब घोषण हुई। उस घटना के पांच दिन बाद यज्ञदेव ने राजा से कहा, "महाराज ! मित्र के दोषों को प्रकाशन करना उचित नहीं है। किन्तु परलोक और इहलोक के विरुद्ध कार्य करने वाले तथा अहिताचरण करने के कारण अपने भी शत्रु रूप मित्र से मुझे क्या? राजा और प्रजा के प्रतिकूल कार्य को जानते हुए उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अतः महाराज ऐसा भी निवेदन करता हूँ।" राजा ने कहा, "आर्य कहें ।" यज्ञदेव ने कहा, "महाराज ! सुनो। मैंने चक्रदेव के समीप में रहने वाले उसके सेवकों
कि इस चन्दन व्यापारी के घर पर चक्रदेव ने चोरी की तथा चोरी के धन को अपने घर पर
१. घोषणे - क ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org