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[ समसान्चक भारिया। ताणं च तुन्भे दुवे थि उप्परोप्परजायगा गुणचंदबालचंदाभिहाणा य पुत्तय त्ति। संपत्तजोव्वणा य महंतं चेलाइभंडं घेत्तूण वाणिज्जवडियाए आगया इमं देसं। विणिओइयं भंडं, समासाइओ इठ्ठलाहो। एत्थंतरम्मि विजयवम्मनरः इणा आढत्तो लच्छिनिलयसामी सूरतेओ नाम नरचई। सो य नयरे गज्झं छोढण गहियसारनयरलोओ आरूढो इमं पदयं । तुम्भे वि तेणेव नरवडणा सह घेत्तूण दविणजायं परबलभएण आरूहा लच्छिपव्दयं । ठिया य एयम्मि पएसे निहाणीकयमालोचिऊण इमं दविणजायं। अइक्कतो कोइ कालो। तओ लोहदोसेण 'भागिओ' ति करिय विसपओमकरणेणं वाशविओ तुमं गुणचंदेण । सुद्धसहावत्तणेणं च उववन्नो वंतरसुरेसु । गुणदो वि य अपरि जिऊण तं दव्वं एत्थ चेव पन्वए महाभयंगडक्को मरिऊण उप्पन्नो रयणप्पहाए नरयपुढवीए नारओ। तओ तुम देसण पलिओवममहाउयं पालिऊण तओ चुओ एत्थेव विजए टंकणाउरे' नयरे हरिणंदिस्स सत्थवाहस्स वसुमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो सि। जाओ कालक्कमेणं । पइद्वावियं च ते नामं देवदत्तो त्ति । पत्तो कुमारभावं। एत्थंतरम्मि तओ वि गुणचंदो नरगाओ
तस्य भार्या । तयोश्च युवां द्वावपि उपर्युपरिजातको गुणचन्द्र-बालचन्द्राऽभिधानौ च पुत्रकौ इति । सम्प्राप्तयौवनौ च महत् चेलादिभाण्डं गृहीत्वा वाणिज्यवृत्तिकया आ गतौ इमं देशम् । विनियोगितं भाण्डम् , समासादित इष्टलाभः । अत्रान्तरे विजयवर्मनरपतिना आक्रान्तो लक्ष्मीनिलयस्वामी सूरतेजा नाम नरपतिः । स च नगरे ग्राह्य (असारं)क्षिप्त्वा गृहीतसारनगरलोकः आरूढ इमं पर्वतम् । युवामपि तेनैव नरपतिना सह गृहीत्वा द्रविणजातं परबलभयेन आरूढी लक्ष्मीपर्वतम्। स्थितौ चैतस्मिन प्रदेशे निधानीकृतमालोच्य इदं द्रविणजातम् । अतिक्रान्तः कीयानपि कालः । ततो लोभदोषेण 'भागिकः' इति कृत्वा विषप्रयोगकरणेन व्यापादितस्त्वं गुणचन्द्रेण । शुद्धस्वभावत्वेन च उपपन्नो व्यन्तरसूरेषु । गुणचन्द्रोऽपि च अपरिभुज्य तद् द्रव्यम् अत्र चैव पर्वते महाभुजङ्गदष्टो मृत्वा उत्पन्नो रत्नप्रभायां नरकपृथिव्यां नारकः । ततरत्वं देशोनप-योपममथाऽऽयुः पालयित्वा ततश्च्युतः अत्रैव विजये टङ्कणापुरे नगरे हरिनन्दिनः सार्थवाहस्य वसुमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तव नाम देवदत्त इति । प्राप्तः कुमारभावम् । अत्रान्तरे
थी। उन दोनों के तुम दोनों क्रमशः गुणचन्द्र और बालचन्द्र नामक पुत्र हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर बहुत सारे कपड़े आदि माल लाकर व्यापार करते हुए इस देश में आये । माल को बेचा, इष्ट लाभ हुआ। इसी बीच विजयवर्मा राजा के द्वारा लक्ष्मी के निवास का स्वामी सूरतेजा नामक राजा आक्रान्त हुआ । वह नागरिकों की निःसार वस्तुओं को फेंककर सारपूर्ण वस्तुओं को लेकर इस पर्वत पर चढ़ गया । आप दोनों भी उसी राजा के साथ धन लेकर शत्रुओं के भय से लक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गये। एक स्थान पर धन गाड़कर उसकी देखभाल करते हए आप दोनों ठहर गये । कुछ समय बीत गया । तदनन्तर लोभ के दोषवश आपको साझीदार समझकर गुणचन्द्र ने विष देकर मार डाला । शुद्ध स्वभाव के कारण तुम व्यन्तर देवों में उत्पन्न हुए । गुणचन्द्र भी उस धन का भोग न कर इसी पर्वत पर बड़े भारी सांप के द्वारा काटा जाकर मर गया और रत्नप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में नारकी हआ । तदनन्तर तुम एक पल्य से कम की आयु भोगकर वहाँ से च्युत होकर इसी देश के टंकणापुर नगर में हरिनन्दिन व्यापारी की वसुमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आये और कालक्रम से उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम देवदत्त रखा गया। तुम कुमारावस्था को प्राप्त हुए। इसी बीच गुणचन्द्र उस नरक से निकलकर
१. ढंकणाउरे-ख।
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