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तईनी भवो]
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पावेइ य सुविसालं मोक्खसुहं सुहपरंपरेणेव ।। तस्सेव पहावेणं सुंदर ! विमलस्स नाणस्स ॥२५१॥ एवं इहलोयम्मि वि परलोयम्मि य सुहाइ नाणेणं । पावेइ जेण जीवो तम्हा तं दाणपवरं तु ॥२५२॥ इहलोयपारलोइयसुहाई सव्वाइं तेण दिन्नाई। जीवाण फुडं सव्वन्नुभासियं देइ जो नाणं ॥२५३॥ गयरागदोसमोहो सम्वन्नू होइ नाणदाणेणं । मणुयासुरसुरमहिओ कमेण सिद्धि च पावेइ ॥२५४॥ एवं खु नाणदाणं सुंदर ! संखवओ समक्खायं । देंतस्स गाहगस्स य हियमेगंतेण विन्नेयं ॥२५५॥ पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सईकाइयाण जीवाणं । वेइंदिय-तेइंदिय-चउरो-पंचिदियाणं च ॥२५६॥
प्राप्नोति च सुविशालं मोक्षसुखं सुखपरम्परेणैव । तस्यैव प्रभावेण सुन्दर ! विमलस्य ज्ञानस्य ॥२५॥ एवमिहलोकेऽपि परलोके च सुखानि ज्ञानेन । प्राप्नोति येन जीवस्तस्मात् तद् दानप्रवरं तु ॥२५२॥ इहलोकपारलौकिकसुखानि सर्वाणि तेन दत्तानि । जीवानां स्फुटं सर्वज्ञभाषितं ददाति यो ज्ञानम् ॥२५३॥ गतरागद्वेषमोहः सर्वज्ञो भवति ज्ञानदानेन । मनुजाऽसुरहितः क्रमेण सिद्धि च प्राप्नोति ॥२५४॥ एतत् खलु ज्ञानदानं सुन्दर ! संक्षेपतः समाख्यातम् । ददानस्य ग्राहकस्य च हितमेकान्तेन विज्ञेयम् ॥२५॥ पृथिव्युदक-अग्नि-मारुत-वनस्पतिकायिकानां जीवानाम् । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियाणां च ॥२५६।।
हे सुन्दर ! उसी निर्मल ज्ञान के प्रभाव से ही सुख-परम्परा द्वारा सुविस्तृत मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है । चूकि ज्ञान से जीव इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है इसलिए ज्ञानदान श्रेष्ठ है । जीवों को स्पष्ट रूप से जो सर्वज्ञभाषित ज्ञानदान देता है, उसने इस लोक और परलोक में सुख देने वाले सभी दान दे दिये । ज्ञानदान से राग, द्वेष और मोह से रहित होता हुआ सर्वज्ञ होता है तथा मनुष्यों
और असुरों से पूजित होकर क्रम से सिद्धि को प्राप्त करता है । सुन्दर ! यह ज्ञानदान संक्षेप से कहा गया है। यह देने वाले और लेने वाले का एकान्त रूप से हितकारी है-ऐसा जानना चाहिए । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों की मन, वचन और काय के योग से की गयी-॥२५१-२५६॥
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