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पायो भवो]
१८५ धम्मोवग्गहदाणं भण्णइ सयमेव दमविरुद्धं । नवकोडीपरिसुद्धं दिज्जइ जंधम्मियजणस्स ॥२६३॥ तं पुण असणं पाणं वत्थं पत्तं च भेस जोग्गं । दायव्वं तु मइमया तहेव सयणासणं पवरं ॥२६४॥ दायव्वं पुण सज्झायझा निरयस्स निरुवगारिस्स। जो संजमतवभारं वहइ सया तेणुवग्गहिओ ॥२६५॥ कम्मलहयत्तणेण य सो अप्पाणं परं च तारेइ। कम्मगुरू अतरंतो सयंपि कह तारए अन्नं ॥२६६॥ दायव्वं पुण तं कारणेहि एएहि चउहि परिसुद्धं । जिणभणिएहिं दायग-गाहग-तहकाल-भावेहि ॥२६७॥ दायगसुद्धं भण्णइ जो दाया देइ नाणसंपन्नो। अट्ठमयट्ठाणरहिओ सद्धारोमचियसरीरो ॥२६८॥ धर्मोपग्रहदानं भण्यते स्वयमेव द्रव्यमविरुद्धम् । नवकोटिपरिशुद्धं दीयते यद् धार्मिकजनाय ॥२६३॥ तत् पुनरशनं पानं वस्त्रं पात्रं च भेषजं योग्यम् । दातव्यं तु मतिमता तथैव शयनाऽऽसनं प्रवरम् ॥२६४॥ दातव्यं पुनः स्वाध्यायध्याननिरतस्य निरुपकारिणः । यः संयमतपोभारं वहति सदा तेनोपगृहीतः॥२६॥ कर्मल घुत्वेन च स आत्मानं परं च तारयति । कर्मगुरुरतरन् स्वयमपि कथं तारयेदन्यम् ॥२६६।। दातव्यं पुनस्तत् कारणैरेतैश्चतुभिः परिशुद्धम् । जिनभणितैर्दायक ग्राहक-तथाकाल-भावैः ॥२६७।। दायकशुद्ध भण्यते यो दाता ददाति ज्ञानसम्पन्तः ।
अष्टमदस्थानरहितः श्रद्धारोमाञ्चितशरीरः ॥२६८॥ नवकोटि से परिशुद्ध जो अनुकूल द्रव्य (वस्तु) धामि व्यक्ति के लिए दिया जाता है वह (दान) धर्मोपग्रहदान कहलाता है । बुद्धिमानों को योग्य भोजन, पान, वस्त्र, पात्र, दवाई तथा उत्कृष्ट शयन और आसन दान करना चाहिए । निष्प्रयोजन जो उपकार करते हैं और जो सदा स्वाध्याय और ध्यान में रत रहते हैं, उन्हें दान देना चाहिए। जो सदा संयम और तप के भार को वहन करता है उससे सदैव उपगृहीत होना चाहिए । दानी व्यक्ति के कर्मों का भार हल्का हो जाता है अतः वह अपने को तारता है और दूसरे को भी तारता है। जिसके स्वयं कर्म भारी हैं वह दूसरे को कैसे तार सकता है ? जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित दाता, ग्रहीता, काल और भाव-इन चार कारणों से परिशुद्ध दान देना चाहिए। ज्ञान से युक्त, श्रद्धा से रोमांचित शरीरवाला, आठ मदों से रहित जो दाता दान देता है उसे दायकशुद्ध कहते हैं ॥२६३-२५८॥
1.चेव-ख।
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