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[समताइन्वाहा पयाणगेहिं । पतो तमुद्देस, जत्थ निहाणं ति। तओ बहुलपत्तलयाए पएसस्स वीसमिओ मुहत्तयं । दिवो य तए' पामाडझाडयस्स इमम्मि पएसे विणिग्गओ पायओ। भणियं कोउगेण भो मंगलग ! एत्थ पएसे केणइ दविणजाएण होयव्वं । तेण भणियं-'निहालेमो' ति । तए भणियं-- अलं इमिणा। कोउगमेत्तमेव मे कहणनिमित्तं, न उण दविण लोहो। तेण भणियं-अहिययरं मे कोउयं; ता निहालेमो, को एत्थ परमत्थो त्ति ? तओ अणभिप्पेयं पि भवओ पयट्टो तं तहाविहेण तिक्खसारकट्ठण खणि ति । दिट्टो य तेण थेवभूमिभाए कलसकंठओ। तओ पुवकयकम्मलोहदोसेण चितियं मंगलगेण । अहो ! महत्थो एस निही । जइ कहंचि भट्टिदारयं वंचिउ गिहिउं पारियइ ति । एत्थंतरम्मि दिट्ठो तुमए वि कलसकंठगो। भणिओ य एसो -भद्द मंगलग ! अलं इमिणा; एहि, नयरं गच्छामो त्ति । तओ पूरिऊण तमुद्देसं हिट्ठो विय पयट्टो मंगलगो। भणिओ य तुमए- भद्द ! न तए कस्सइ पुरओ एस वइयरो अहिगरणहेउभूओ जंपियव्यो ति । तेण भणियं-भट्टिदारय ! न जंपामो। चितियं णेण-मए वि विणा एस एयं गेण्हिस्सइ ति । अओ से एस पयासो। ता कहं अहं इमिणा यम् । आगतश्च कतिपयप्रयाणकैः । प्राप्तस्तमुद्देशम्, यत्र निधानमिति । ततो बहुलपत्रतया प्रदेशस्य विश्रान्तो मुहूर्तकम् । दृष्टश्च त्वया पामाडवृक्षस्य अस्मिन् प्रदेशे विनिर्गतः पादकः । भणितं कौतुकेन-भो मङ्गलक ! अत्र प्रदेश केनचिद् द्रविणजातेन भवितव्यम् । तेन भणितम्-निभालयामः इति । त्वया भणितम्-अलमनेन। कौतुकमात्रमेव मम कथननिमित्तम्, न पुनविणलोभः । तेन भणितम्-अधिकतरं मम कौतुकम् ; ततो निभालयामः, कोऽत्र परमार्थ इति ? ततोऽनभिप्रेतमपि भवतः प्रवृत्तस्तं तथाविधेन तीक्ष्णसारकाष्ठेन खनितुमिति । दृष्टश्च तेन स्तोक भूमिभागे कलशकण्ठकः । ततः पूर्वकृतकर्मलोभदोषेण चिन्तितं मङ्गलकेन-अहो ! महार्थ एष निधिः । यदि कथंचिद् भर्तुदारकं वञ्चित्वा ग्रहीतुं पार्यत इति। अत्रान्तरे दृष्टस्त्वयाऽपि कलशकण्ठकः । भणितश्चषः-भद्र मङ्गलक! अलमनेन; एहि, नगरं गच्छाम इति । ततः पूरयित्वा तमुद्देश हृष्ट इव प्रवृत्तो मङ्गलकः । भणितश्च त्वया-- 'पद्र ! न त्वथा कस्यचित् पुरत एष व्यतिकरोऽधिकरणहेतुभूतः कथयितव्य इति । तेन भणितम्--भर्तदारक ! न कथयामः । चिन्तितं तेन- मयापि विना एष एतं ग्रहीष्यति इति । अतस्तस्य एष प्रयासः । ततः कथमहमनेन वञ्च्ये ? ततो यावच्चैव न
चलकर उस स्थान पर आये जहाँ धन गड़ा हुआ था । तब बहुत पत्तों वाला स्थान होने के कारण वहाँ मुहर्त भर विश्राम किया। तुमने पामाड़ वृक्ष के इस स्थान पर पादप निकलते हुए देखा । कौलूहलवश कहा--- "हे मगलक ! इस स्थान पर कुछ धन होना चाहिए ।" उसने कहा-"खोदते हैं।" तुमने कहा--"खोदना व्यर्थ है। मेरे कहने का कारण मात्र कौतुक है, धन का लोभ नहीं।" उसने कहा-"मुझे अधिक कौतुक है अतः खोदते हैं, इसमें क्या वास्तविकता है ?" तब वह आपके न चाहते हुए भी नुकीली मजबूत लकड़ी से खोदने में प्रवृत्त हो गया । उसे "भूमि के एक ओर कलश का कण्ठ दिखाई पड़ा । तब पहले किये हुए लोभ-कर्म के दोषवश मंगलक ने सोचाअरे, यह निधि बहुत मूल्यवान् है । काश ! स्वामिपुत्र को धोखा दे ग्रहण कर पाऊँ।" इसी बीच तुमने भी कलश के कण्ठ को देखा । इससे कहा-"भद्र मंगलक ! खोदना व्यर्थ है, आओ नगर को चलें।" तब उस स्थान को पूरकर मानो हर्षित हुआ मंगलक चल पड़ा । तुमने कहा- "भद्र ! किसी के भी सामने तुन इस घटना के सम्बन्ध में मत कहना।" उसने कहा-स्वामिपुत्र ! नहीं कहेंगे।" उसने सोचा- यह मेरे भी बिना इसको ग्रहण कर लेगा अतएव इसका यह प्रयास है। अतः मैं इसको कैसे धोखा। अतः जब तक यह इसे ग्रहण नहीं
१. पोमाड-ख, २. दव-ख।
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