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तइयो भयो] उव्वट्टिऊण लोहदोसेणमेत्थेव लच्छिपव्वए एयस्स चेव निहाणस्स पच्चासन्नपएसे उप्पन्नो भुयंगमो त्ति । परिग्गहियं च ण तं दव्वं । एत्थंतरम्मि लच्छिनिवासिणीदेवयामहम्मि समागओ तुम लच्छिपव्वयं । कश देवयाए पूया। दिन्नं दीणाणाहाण दविणजायं। संपाइओ भोयणोवयारो। तओ तुम पुत्वभवसिणेहेणं रम्मयाए पन्नयस्स परिम्भमंतो आगओ इमं उद्देसं । दिट्ठो भयंगमेणं । तओ लोहदोसेण 'एस एयं दविणजायं गेण्हिस्सइ, त्ति डक्को चरणदेसम्मि । अच्चुग्गयाए विसस्स तक्खणा चेव निवडिओ धरणिबढ़े। पासवत्तिणा य ते परियणेण वावाविओ भुयंगमो। उप्पन्नो एत्थेव पव्वए सीहत्ताए त्ति। तुम पि मरिऊण एत्थेव विजए कयंगलाए नयरीए सिवदेवस्स कुलउत्तयस्स जसोहराए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो सि । जाओ कालक्कमेण । पइट्ठावियं च ते नामं इंददेवो त्ति । पत्तो जोव्वणं । इओ य तेण सीहजीवेण पुत्वभवभत्थभावणाओ ओहसन्नाए परिग्गहियं तं दव्वं । एवं च गओ कोइ कालो। अन्नया य वीरदेवनरवइणा नियसामिएण पेसिओ तुमं लच्छिनिलयसामिणो माणहंगस्स समीवं । आगच्छमाणो य क इवयपुरिसपरिवारिओ कालक्कमेण पत्तो इमं
ततोऽपि गुणचन्द्रो नरकाद् उद्वत्य लोभदोषेण अत्रैव लक्ष्मीपर्वते एतस्य चैव निधानस्य प्रत्याऽऽसम्नप्रदेशे उत्पन्नो भुजङ्गम इति । परिगृहीतं च तेन तद् द्रव्यम् । अत्रान्तरे लक्ष्मीनिवासिनीदेवतामहसि समागतस्त्वं लक्ष्मीपर्वतम् । कृता देवतायाः पूजा। दत्तं दीनानाथानं द्रविणजातम् । सम्पा. दितो भोजनोपचारः। ततस्त्वं पूर्वभवस्नेहेन रम्यतया पर्वतस्य परिभ्रमन् आगतः इममुद्देशम् । दृष्टो भुजङ्गमेन । तसो लोभदोषेण एष एतद् द्रविणजातं ग्रहीष्यति इति दष्टश्चरणदेशे। अत्युग्रतया विषस्य तत्क्षणं चैव निपतितो धरणिपृष्ठे। पाश्र्ववर्तिना च ते परिजनेन व्यापादितो भुजनमः । उत्पन्नोऽत्रैव पर्वते सिंहतया इति । त्वमपि मत्वाऽत्रैव विजये कृतङ्गलायां नगर्यां शिवदेवस्य कुलपुत्रस्य यशोधराया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । जातः कालक्रमे । प्रतिष्ठापितं च ते नाम इन्द्रदेव इति । प्राप्तो यौवनम् । इतश्च तेन सिंहजीवेन पूर्वभवाभ्यस्तभावनात् ओघसंज्ञया परिगृहीतं तद् द्रव्यम् । एवं च गतः कीयान् कालः । अन्यदा च वीरदेवनरपतिना निजस्वामिकेन प्रेषितस्त्वं लक्ष्मीनिलयस्वामिनो मानभङ्गस्य समीपम् । आगच्छंश्च कतिपयपुरुषपरिवृतः काल
मोभ के दोष से इसी लक्ष्मी पर्वत पर, इसी गड़े हुए धन के पास के स्थान में सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने उस धन को ले लिया। इस बीच लक्ष्मी पर्वत पर निवास करने वाली देवी के उत्सव में तुम लक्ष्मी पर्वत पर आये। देवी की पूजा की। दीनों और अनाथों को धन दिया। भोजनादि कार्य किये । अनन्तर पूर्वभव के स्नेह से पर्वत की रमणीयता के कारण घूमते हुए इस स्थान पर आये । सांप ने तुम्हें देखा। तब लोभ के दोष से 'यह इस धन को ले लेगा ऐसा सोपकर पैर में डस लिया। विष की अत्यन्त उग्रता के कारण उसी क्षण तुम धरती पर गिर गये । समीपवर्ती तुम्हारे बन्धु-बान्धवों ने साँप को मार डाला । वह सर्प इसी पर्वत पर सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ। तुम भी मरकर इसी देश की कृतमंगला नगरी में शिवदेव कुलपुत्र की यशोधरा रानी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । समयानुसार जन्म हुआ। तम्हारा नाम इन्द्रदेव रखा गया । यौवनावस्था को प्राप्त हुए । इधर उस सिंह के जीव ने पूर्वभव की अभ्यस्त भावना से लोभवश उस धन को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार कुछ समय बीता। एक बार तुम्हारे स्वामी वीरदेव राजा ने तुम्हें लक्ष्मीनिलय के स्वामी मानभंग के पास भेजा। कुछ लोगों के साथ आते हुए कालक्रम से तुम इस स्थान पर आये और कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठे। इसी बीच पर्वतीय गुफादार
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