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[ समराइच्चकहा
ताव इमिणा कहाए चेव, अहं एयं 'अक्खिवामि ति चितिऊण अक्खित्ता कहा, कओ अन्नो पसंगो । पुणो य से समाहूओ मयणलेहापमुहो परियणो, सबहुमाणं च भणिओ राइणा । कि जुत्तं तुम्हाणं सुणिय निबंधणाणं पि एवं कसिणपक्खचंदलेहं व परिखिज्जमाणि देवि उवेक्खिउं ति । न य असम्भ वत्युविसओ एस निव्वेओ, अओ जीवलोयसारभूया मे देवी । किं च तं वत्युं जं मे पाणेसु धरतेसु चैव देवोए न संपज्जइति । मयणलेहाए भणियं - महाराय ! एवमेयं; नवरमित्थीयणसुलहो अविवेगो चैव केवलं एत्थ अवरज्झइ । ता सुणउ महाराओ । महाराय ! न एयमियाणि पि कहिउं पारीयs, तहा वि 'न अन्नो उवाओ' त्ति काऊण कहीयइ । राइणा भणियं - अणुरूवमेयं संभमस्स; जं उवावसज्यं तं सयमेव कीरइ, इयरं निवेइयइति, ता कहेउ भोई, को एत्थ परमत्यो त्ति ? तओ मयणलेहाए ससज्झसाए विय आचिक्खिओ गन्भसंभवाओ दोहलयदोसेण गब्भसाडणावसाणो ववहारोति । राइणा चितियं-अहो ! से देवीए ममोवरि असाहारणो नेहो, जेणावच्चजम्मं पि न बहु मन्नइ त्ति । असंपायणेणं च दोहलयस्स मा गब्भविवत्ती से भविस्सइ त्ति उवायं चितेमि ।
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तस्य निर्वेदः, ततोऽलं तावदनया कथया एव, अहमेतामाक्षिपामि' इति चिन्तयित्वाऽऽक्षिप्ता कथा, कृतोऽन्यः प्रसङ्गः । पुनश्च तस्या समाहूतो मदनलेखाप्रमुखः परिजनः, सबहुमानं च भणितो राज्ञा । किं युक्तं युष्माकं श्रुतनिबन्धनानामपि एवं कृष्णपक्षचन्द्रलेखामिव परिखिद्यमानां देवीमुपेक्षितुमिति ? न चासाध्यवस्तुविषय एव निर्वेदः, यतो जीवलोकसारभूता मे देवी । किं च तद् वस्तु, यन्मया प्राणेषु धार्यमाणेषु एव देव्या न सम्पद्यते इति । मदनलेखया भणितम् - महाराज ! एवमेतद् नवरं स्त्रीजनल भोऽविवेक एव केवलमत्रापराध्यति । तत शृणोतु महाराजः । महाराज ! नैतदिदानीमपि कथयितुं पार्यते, तथाऽपि नान्य उपाय इति कृत्वा कथ्यते । राज्ञा भणितम् अनुरूपमेतत् सम्भ्रमस्य यदुपायसाध्यं तत्स्वयमेव क्रियते, इतरद् निवेद्यते इति । ततः कथयतु भवती, कोऽत्र परमार्थ इति ? ततो मदनलेखया ससाध्वसयेव आख्यातो गर्भसम्भवाद् दोहददोषेण गर्भशातनावसानो व्यवहार इति । राज्ञा चिन्तितम् - अहो ! तस्या देव्या ममोपरि असाधारणः स्नेहः, येनापत्यजन्मापि न बहु मन्यते इति । असम्पादनेन च दोहदस्य मा
दुःख बड़ा है, अतः इस कथा से क्या ? मैं इससे यह कहता हूँ'--- ऐसा विचार कर वह चर्चा बन्द की और दूसरा प्रसंग उपस्थित कर दिया । राजा ने रानी के मदनलेखा आदि प्रमुख परिजनों को बुलाया। राजा ने सम्मानपूर्वक कहा, "आप जैसे शास्त्रज्ञों को भी कृष्णपक्ष के चन्द्रमा की रेखा के समान क्षीण होती हुई देवी की उपेक्षा करना क्या योग्य है ? इसका दुःख ऐसा नहीं है, जिसका विषय असाध्य वस्तु हो, क्योंकि मेरी रानी प्राणिलोक में सारभूत है । वह वस्तु क्या है जो मेरे प्राण धारण करने पर भी महारानी को प्राप्त नहीं होती है ?" मदनलेखा ने कहा, "महाराज ! यह ऐसा ही है, स्त्रीजनों के लिए सुलभ अविवेक ही यहाँ अपराध करा रहा है। अतः महाराज सुनिए । महाराज ! यह कह नहीं सकती, तथापि अन्य उपाय नहीं है, अतः कहा जा रहा है ?” राजा ने कहा, "तुम्हारी घबड़ाहट उचित है कि जो उपाय से साध्य है, उसे स्वयं करते हैं और जो उपाय से साध्य नहीं है। उसका दूसरे से निवेदन करते हैं । अतः तुम कहो, वास्तविकता क्या है ?" तब मदनलेखा ने डरते हुए गर्भ की उत्पत्ति से लेकर दोहले का दोष तथा गर्भ गिराने के उपाय सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को कहा । राजा ने सोचा-"ओह ! उस देवी का मुझ पर असाधारण स्नेह है, जिससे सन्तानोत्पत्ति को भी अधिक नहीं मानती है । दोहला
१. अक्खिप्पामि च
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