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[ समराइचकहा संदराहिरामयाओ चेव पिसुणियनियविभववित्थारो, विभववित्थारा संघियसयणवग्गो, सयणवग्गनिरवेक्खमिमं ईइसं निस्संग पवन्नो सि । गुरुणा भणियं-सुण, किमिह अद्विमंसरुहिरसंगए सरीरे वि संवरत्तं? को वा आयासमेत्तफले विहववित्थारे पडिबंधो, को वा सुमिणयसमागमचंचले सयणे त्ति । अवि य
सयणस्स वि मज्झगओ रोगाभिहओ किलिस्सइ इहेगी। सयणो वि य से रोगं न विरिचइ' ने य नासेइ ॥२४०॥ मज्झम्मि बंधवाणं एक्को मरइ कलुणं रुयंताणं। न य णं धारेइ तओ बंधुजणो नेव दाराइं ॥२४॥ एक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सेक्कओ समणुहोइ। एक्को जायइ मरइ य परलोयं एक्कओ जाइ ॥२४२॥ पत्तेयं पत्तेयं नियगं कम्मफलमणुहवंताणं।
को कस्स जए सयणो को कस्स व होइ अन्नजणो ॥२४३॥ भिसामः, सन्दराभिरामतया एव पिशुनितनिविभवविस्तारः, विभवविस्तारात् संघितस्वजनवर्गः, स्वजनवर्गनिरपेक्षामिमाम् ईदृशीं निस्संगतां प्रपन्नोऽसि । गुरुणा भणितम्-शृण, किमिह अस्थिमांसरुधिरसंगते शरीरेऽपि सौन्दर्यम् ? को वा आयासमात्रफले विभवविस्तारे प्रतिबन्धः ? को वा स्वप्नकसमागमचञ्चले स्वजने इति ? अपि च
स्वजनस्याऽपि मध्यगतो रोगाभिहतः क्लिश्यति इहैकः । स्वजनोऽपि च तस्य रोगं न विभजति नैव नाशयति ।।२४०॥ मध्ये बान्धवानामेको म्रियते करुणं रुदताम् । न च तं धारयति ततो बन्धुजनो नैव दाराः ॥२४१।। एकः करोति कर्म फलमपि तस्य एकः समनुभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ॥२४२।। प्रत्येकं प्रत्येकं निजकं कर्मफलमनुभवताम् ।
कः कस्य जगति स्वजनः कः कस्य वा भवति अन्यजनः ॥२४३॥ अंगों से सुन्दर और अभिराम लग रहे हैं । आपकी सुन्दरता और अभिरामता ही आपके निजी वैभव के विस्तार की सूचना दे रही है । वैभव के विस्तार से आपको स्वजनों का समूह मिला होगा। अपने बग्ध-बान्धवों से निरपेक्ष होकर कैसे इस प्रकार की निरासक्ति को प्राप्त हुए हैं ?" गुरु ने कहा- "सुनो-इस हड्डी, मांस और खून से मिले हुए शरीर में सौन्दर्य क्या है ? परिश्रम मात्र जिसका फल है, ऐसे वैभव के विस्तार में अविच्छिन्न सम्बन्ध क्या है ? अथवा स्वप्न के समागम के समान चंचल' स्वजनों से क्या सम्बन्ध है ? कहा भी है
इस संसार में हरएक अपने स्वजनों (बन्धुबान्धवों) के बीच भी रोग से पीड़ित होकर दुःखी होता है। स्वजन भी न तो उसके रोग को बाँट सकते हैं और न ही नष्ट कर सकते हैं । बन्धुओं के मध्य करुण क्रन्दन करते हुए कोई एक मर जाता है। उसे न तो बन्धुजन बचा पाते हैं और न स्त्री बचा पातो है। अकेला ही (जीव) कर्म को करता है और उसके फल को भी अकेला ही भोगता है । अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है और अकेला ही परलोक जाता है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्म का फल भोगता है। संसार में कौन किसका स्वजन है और कौन किसका परजन ।।२४०-२४३।। १. विगिव्हइ-ख।
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