Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 192
________________ [समराइयका तं पेच्छिउं विसण्णो नग्गोहं गयणगोयराणं पि। दुल्लंघणिज्जमुत्तुंगखंधमारुहिउमसमत्थो॥१७८॥ ताव वणदुहत्थि मंथरगंडालिजालपामुक्कं । हुलियं समल्लियंत दटुं वडपायवुद्देसं ॥१७॥ अब्भहियभयपवेविरसव्वंगो वुण्ण'वयणतरलच्छं। एत्तो इओ नियंतो पेच्छइ कूवं तणोछन्नं ॥१०॥ अह मरणभीरुएणं नग्गोहासन्नजिण्णकूवम्मि। अप्पा निरावलंबं मुक्को खणजीवलोहेण ॥१८॥ उतंगभित्तिजाओ सरथंभो तम्मि तत्थ य विलग्गो। पडणाभिघायकुविए पेच्छइ य भुयंगमे भीमे ॥१८२॥ चउसु वि तडीसु दरिए विसलवसंवलियनयणसिहिजाले। उन्भडफडाकराले पवेल्लिरंगे डसिउ कामे ॥१३॥ तं प्रेक्ष्य विषण्णो न्यग्रोधं गगनगोचराणामपि । दुर्लङ्घनीयमुत्तुङ्गस्कन्धमारोढुमसमर्थः ॥१७॥ तावद् वनदुष्टहस्तिनं मन्थरगण्डालिजालप्रमुक्तम् । हुलितं (शीघ्र) समालोयमानं दृष्ट्वा वटपादपोद्देशम् ।।१७९।। अभ्यधिकभयप्रवेपमानसर्वाङ्गस्त्रस्तवदनतरलाक्षम् । इत इतो गच्छन् पश्यति पश्यति कूपं तृणोच्छन्नम् ॥१८॥ अथ मरणभीरुकेन न्यग्रोधासन्नजीर्णकपे। आत्मा निरावलम्बं मुक्तः क्षणजीवलोभेन ॥१८१॥ उत्तुङ्गभित्तिजातः शरस्तम्भस्तस्मिन् तत्र च विलग्नः । पतनाभिघातकुपितान् पश्यति च भुजङ्गमान् भीमान् ॥१२॥ चतसृष्वपि तटीषु दृप्तान् विषलवसंवलितनयनशिखिजालान् । उद्भटस्फटाकरालान् प्रवेल्लमानाङ्गान् दशितुकामान् ॥१३॥ ____ आकाशगामी जीवों के द्वारा भी कठिनाई से लाँघने योग्य उस वटवृक्ष को देखकर वह खिन्न हो गया। उसके ऊंचे तने पर चढ़ने में जब वह असमर्थ हो रहा था तभी जिसके चौड़े कपोलस्थल पर भौंरों का समूह उड़ रहा था ऐसे दुष्ट जंगली हाथी को बरगद के पेड़ के समीप शीघ्र आते देखकर अत्यधिक भय से उसका सारा शरीर कांप गया। मुह पर घबड़ाहट छा गयी, आंखें अस्थिर हो गयीं। इधर-उधर जाते हुए उसने तृणों से ढका हुआ एक कुआं देखा । मरण के भय से क्षणमात्र जीवन के लोभ से वटवृक्ष के समीप के ही जीर्ण-शीर्ण कुएं में अपने आपको निरालम्ब छोड़ दिया। ऊँची दीवारों से उत्पन्न सरपत का गुच्छ वहाँ पर लगा हुआ था; वहाँ वह लटक गया और गिरने के आघात से कुपित हुए भयंकर सो को उसने देखा । वे सर्प कुएं के चारों ओर की दीवारों पर लगे थे। उनकी आंखों से विषाग्नि की लपटें निकल रही थीं। उनके फण विशाल और भयावह थे । उनके शरीर हिल रहे थे । वे डसने को उतारू थे। ॥१७८-१८३॥ १. पुण्य-क-म, २, तणोचछइयं-क, ३. डसिऊ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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