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[समराइच्चकहा पंकप्पभाए पुढवीए नवसागरोवमाऊ नारगो त्ति । तओ अहमहाउयं अणुवालिऊण चुओ समाणो इहेव जंबुद्दीवे दीवे एरवए खेत्ते हथिणारे नयरे हरिनंदिस्स गाहावइस्स लच्छिमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो। इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिय उरगत्तणं पाविऊणमणेगसत्तवावायणपरो दावाणलदड्ढदेहो मरिऊण तीए चेव पंकप्पभाए पुढवीए किंचणदससागरोवमाऊ नारगो होऊण तओ उव्वट्टो, तिरिएसु आहिडिय तम्मि चेव हथिणाउरे इंदनामस्स वुड्ढसे द्विस्त नंदिमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो त्ति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे । पइट्टावियाइं नामाइंमझ वीरदेवो, इयरस्स दोणगो त्ति । पत्ता य कुमारभावं, समप्पिया य लेहायरियस्स । जाया य अम्हाणं पुव्ववणिया चेव पिई। तओ गहियकलाकलावेणं मए पडिवन्नो माणभंगगुरुसमीवे जिणदेसिओ धम्मो, ममोवयारवंचणकुसलेण दव्वओ दोणएणावि । तओ य मे धम्माणुराएण तप्पभिई तं पइ समुप्पन्ना थिरयरा पिई । समप्पियं से पभूयं दविणजायं । भणिओ य एसो-'ववहरह अणिदिएण मग्गेण ।' तओ सो ववहरिउमारद्धो। विढत्तं च तेण पभूयं दविणजायं । एत्थंतरम्मि पुवकय
नुपाल्य च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरवते क्षेत्रे हस्तिनापुरे नगरे हरिनन्देर्गाथापतेर्लक्ष्मीमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । इतरोऽपि ततो नरकादुद्वत्य उरगत्वं प्राप्यानेकसत्त्वव्यापादनपरो दावानलदग्धदेहो मृत्वा तस्यामेव पङ्कप्रभायां पृथिव्यां किञ्चिदूनदशसागरोपमायुर्नारको भूत्वा तत उद्वत्तः, तिर्यक्षु आहिण्ड्य तस्मिन्नेव हस्तिनापुरे इन्द्रनाम्नो वृद्धश्रेष्ठिनो नन्दिमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्न इति । उचितसमये जातावावाम् । प्रतिष्ठापिते नाम्नी-मम वोरदेवः, इतरस्य द्रोणक इति । प्राप्तौ च कुमारभावम्, समर्पितौ च लेखाचार्यस्य । जाता चावयोः पूर्ववणिता एव प्रीतिः । ततो गृहोतकलाकलापेन मया प्रतिपन्नो मानभङ्गगुरुसमीपे जिनदेशितो धर्मः, ममोपचारवञ्चनाकुशलेन द्रव्यतो द्रोणकेनापि । ततश्च मे धर्मानुरागेण तत्प्रभृति तं प्रति समुत्पन्ना स्थिरतरा प्रीतिः । समर्पितं तस्य प्रभूतं द्रविणजातम् । भणितश्च एषः-व्यवहरत अनिन्दितेन मार्गेण । ततः स व्यवहतु मारब्धः। अजितं च तेन प्रभूतं द्रविणजातम् । अत्रान्तरे पूर्वकृतकर्मवासनादोषेण
नव सागर की आवुवाला नारकी हुआ। तब मैं आयुकर्म के अनुसार आयु पूर्ण कर च्युत हो इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में हरिनन्द गृहस्थ (गाथापति) की लक्ष्मीमति नामक भार्या के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी उस नरक से निकलकर सर्पयोनि प्राप्त कर अनेक प्राणियों के मारने में रत हो दावानल से जलकर मरने के बाद उसी पंकप्रभा पृथ्वी में कुछ कम दशसागर आयुवाला नारकी हुआ । वहाँ से निकलकर तिर्यंच गति में भ्रमणकर उसी हस्तिनापुर नगर में इन्द्र नामक वृद्ध सेठ की नन्दिमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए । नाम रखे गये- मेरा 'वीरदेव' और दूसरे का 'द्रोणक' । कुमारावस्था को प्राप्त हुए दोनों लेखाचार्य (उपाध्याय) को समर्पित किये गये । हम दोनों की, जैसा हनप लेविर्ण कया गया है वैसी ही, प्रीति हो गयी। तब समस्त कलाओं को ग्रहण कर मैंने 'मानभंग' गुरु के समीप जिनप्रणीत धर्म प्राप्त किया । मुझे छलने में निपुण द्रव्यतः द्रोणक ने भी धर्म प्राप्त किया । तब धर्म के प्रति अनुराग होने के कारण तभी से लेकर उसके प्रति मेरी प्रीति अत्यधिक स्थिर हो गयी । उसे अत्यधिक धन दिया। उससे कहा-"जिसमें निन्दा न हो ऐसे मार्ग से व्यवहार (व्यापार) करो।" तब उसने व्यापार आरम्भ किया और खूब धन पैदा किया। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष से उसका मेरे प्रति और अधिक छल-कपट करने का भाव
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