________________
बीजो भयो ]
दहमेत्तपरिभवभायणेणं अज्ज वि जीविएणं । ता एयम्मि नयरदेवयावणसमासन्ने नग्गोहपायवे उक्कलंवेमि अप्पाणं ति । चितिऊण पट्टो नग्गोहसमीवं । एत्यंतरम्मि य कर्हिचि आभोइऊण इमं वयर मोहिणा समुन्ना' ममोवार नयरदेवयाए अणुकंपा | आवेसिऊण रायजर्णाण साहियं जहट्टि - यमेव एवं तीए राइणो । भणिओ य राया- इमाए मइलणाए अमुगम्मि नयरुज्जाणासन्ने नग्गोहपायवे उब्बंधणेण अत्ताणयं परिच्चइउं ववसिओ चक्कदेवो । ता लहुं निवारेहि, तं सम्माणिऊण य पवेसेहि नयरं ति । तओ कोहनेहा उलयाए संकिष्णं रसमणुहवंतो राया 'अरे गेण्हह दुरायारं जन्मदेवं' ति आइसिऊण पहाणवाख्यारूढो समं अहासन्निहियपरियणेणं तुरियतुरियं निग्गओ नयराओ, पत्तोय नरुज्जाणं । दिट्ठो य अहं राइणा नग्गोहपायव साहागओ उत्तरीयनिबद्धपासम्म ढोइयाए सिरोहराए अत्ताणयं पवाहिकामो त्ति । तओ सो दूरओ चेव संभमाइसय निव्वडियसारं 'भो चक्कदेव ! मा साहसं मा साहस' ति भणमानो सिग्घयरतज्जियाए वाख्याए समल्लीणो पायवसमीवं । सयमेव अवणीओ पासओ, गेव्हिऊण य करम्मि ठाविओ अहं तेण बारूयापट्टियाए । भणिओ य
भाजनेन अद्यापि जीवितेन । तत एतस्मिन्नगरदेवतावनसमासन्ने न्यग्रोधपादपे उल्लम्बयामि आत्मानमिति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो न्यग्रोधसमीपम् । अत्रान्तरे च कथंचिदाभोग्येयं व्यतिकरमवधिना समुत्पन्ना ममोपरि नगरदेवताया अनुकम्पा । आवेश्य राजजननीं कथितं यथास्थितमेव एवं तथा राज्ञः । भणितश्च राजा - अनया मलीनतया अमुकस्मिन् नगरोद्यानासन्ने न्यग्रोधपादपे उद्बन्धनेनात्मानं परित्यक्तुं व्यवसितश्चक्रदेवः । ततो लघुनिवारय, तं सन्मान्य च प्रवेशय नगरमिति । ततः क्रोधस्नेहाकुलतया संकीर्णं रसमनुभवन् राजा 'अरे गृह्णीत दुराचारं यज्ञदेवं' इत्यादिश्य प्रधान हस्तिन्यारूढः समं यथासन्निहितपरिजनेन त्वरितत्वरितं निर्गतो नगरात् प्राप्तश्च नगरोद्यानम् । दृष्टश्चाहं राज्ञा न्यग्रोधपादपशाखागत उत्तरीय निबद्धपाशे ढौकितया शिरोधरया आत्मानं प्रबाधितुकाम इति । ततः स दूरत एव सम्भ्रमातिशयनिर्वर्तिसारं 'भोश्चक्रदेव ! मा साहसं मा साहसम्' इति भणन् शीघ्रतरतजितया हस्तिन्या समालीनः पादपसमीपम् । स्वयमेवापनीतः पाशकः, गृहीत्वा च करे स्थापितोऽहं हस्तिनीपृष्ठे । भणितश्च सबहुमानम् - भोः सार्थवाहपुत्र ! युक्तं नाम भवतो
११५
निरर्थक है | अतः इसी नगरदेवी के वन के समीप वटवृक्ष पर अपने को लटकाता हूँ। ऐसा सोचकर वटवृक्ष के समीप आया। इसी बीच अवधिज्ञान से यह सारी घटना विस्तारपूर्वक जानकर नगरदेवी को मुझ पर दया आयी । राजमाता में आविष्ट होकर उन्होंने राजा को यथास्थिति से परिचित कराया। राजा से इस देवी ने यह भी कहा कि खिन्नता के कारण इसी नगर के उद्यान के पास के वटवृक्ष पर अपनी फाँसी लगाने का चक्रदेव ने निश्चय किया है । अतः शीघ्र ही बचाओ और उसे सम्मान सहित नगर में प्रवेश कराओ । तब क्रोध और स्नेह से व्याप्त होकर परस्पर मिले हुए रस का अनुभव करते हुए राजा ने 'अरे ! दुराचारी यज्ञदेव को पकड़ो' ऐसी आज्ञा देकर प्रधान हथिनी पर सवार हो समीपवर्ती लोगों के साथ शीघ्रातिशीघ्र नगर से निकला और नगर के उद्यान में गया । राजा ने मुझे वटवृक्ष की शाखा से दुपट्टे को बांधकर अपनी गर्दन को बाँधने की इच्छा वाला देखा । तब वह दूर से ही घबड़ाकर 'हे चक्रदेव ! दुःसाहस मत करो, दुःसाहस मत करो' कहते हुए शीघ्र ही हथिनी से उतरकर वृक्ष के समीप आया। स्वयं ही फन्दे को दूर किया और हाथ पकड़कर हथिनी की पीठ पर बैठाया । सम्मानपूर्वक कहा, "हे सार्थवाहपुत्र ! मेरे भी प्रश्न का वास्तविक उत्तर न देना क्या आपके लिए उचित
१. समुप्पण्णा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org