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पीको भवो] लोइयं च तेहिं नाणापयारं दविणजायं, दिट्टच पयत्तट्ठावियं चंदणनामंकियं हिरण्णवासणं, नीणियं बाहि, दंसियं चंदणभंडारियस्स । अवलोइऊण सटुक्खमिव भणियं च तेण-अणुहरइ ताव एयं, न उण निस्संसयं वियाणामि त्ति । कारणिएहि' भणियं-वाएहि ताव अवहरियनिवेयणापत्तगं, कि तत्थ इमं ईइसं अभिलिहियं न व त्ति । वाइयं पत्तगं, दिट्ठमभिलिहियं सज्झसीभूया नायरकारणिया। भणियं च तेहि-सत्यवाहपुत्त ! कुओ तुह इमं ? तओ मए वि चितियं-कहं सम्भावठावियं मित्तनासं पयासेमि । मा नाम तेणावि कहि चि एसो एवं हेव समासाइओ भवे। ता कहं नियपाणबहुमाणओ मित्तपाणे परिच्चयामित्ति चितिऊण भणियं मए- 'नियगं चेव एयं' ति । तेहिं भणियंकहं चंदणनामंकियं ? मए भणियं-- न याणामो, कहिंचि वासणपरावत्तो भविस्सइ । तेहि भणियंकिसंखियं किं वा हिरण्णजायमेथं ति ? मए भणियं-न सुठ्ठ सुमरामि, सईचेव जोएह । कारणिएहि भणियं-वाएह पत्तगं, किदविणजुत्तं किंसंखियं वा तं चंदणसत्थवाहवासणं ति । वाइयं पत्तगं जाव बीणारदविणजुत्तं दससहस्ससंखियं च । तओ छोडावियमणेहि मिलिओ पत्तगत्थो।
प्रयत्नस्थापितं चन्दननामाङ्कितं हिरण्यभाजनम्, नीतं वहिः, दर्शितं चन्दनभाण्डागारिणः । अवलोक्य सदुःखमिव भणितं तेन-अनुहरति तावदेतत् न पुननिःसंशयं विजानामीति । कारणिकैर्भणितमवाचय तावदपहृतनिवेदनापत्रकम्, किं तत्र इदमीदशमभिलिखितं न वेति । वाचितं पत्रकम्, दृष्टमभिलिखितम् । साध्वसीभूता नागरकारणिकाः । भणितं च तैः-सार्थवाहपुत्र ! कुतः तवेदम्। ततो मयाsपि चिन्तितम्-कथं सद्भावस्थापितं मित्रन्यासं प्रकाशयामि । मा नाम तेनापि कथंचिद् एष एवमेव समासादितो भवेत् । ततः 'कथं निजप्राणबहमानतो मित्रप्राणान परित्यजामि' इति चिन्तयित्वा भणितं मया-'निजकमेवैतद्' इति । तैर्भणितम्-कथं चन्दननामाङ्कितम् ? मया भणितम्-न जानीमः, कथंचिद् भाजनपरावर्तो भविष्यति । तैर्भणितम्-किसंख्यं किं वा हिरण्यजातमत्र इति ? मया भणितम्-न सुष्ठु स्मरामि, स्वयमेव पश्यत। कारणिकभणितमवाचय पत्रकम, किं द्रविणयुक्तं किसंख्यं वा तत् चन्दनसार्थवाहभाजनम् इति ? । वाचितं पत्रं यावद् दीनारदविणयुक्तं दशसहस्रसंख्यं च। ततो मोचितं तैः, मिलितः पत्रकार्थः । विस्मिता नागर
हुए । उन्होंने अनेक प्रकार के धन को देखा; चन्दन नाम लिखे हुए सोने के बर्तन को प्रयत्नपूर्वक रखा हुआ देखा। वे उसे बाहर लाये और चन्दन व्यापारी के भण्डारी को दिखाया । उसने मानो दुःखी होते हुए कहा, "यह उसके समान है, किन्तु मैं निस्सन्देह रूप से नहीं जानता है।" नगररक्षक राज्याधिकारियों ने कहा, "चोरी के विषय में दिये गये निवेदन-पत्र को पढ़ो, उसमें इसप्रकार का लिखा है अथवा नहीं ?" पत्र को पढ़ा गया। अभिलेख को देखा गया। नगरपुरुष और जांच करने वाले अधिकारी घबरा गये । उन्होंने कहा, “वणिकपुत्र ! ये आपने कहाँ से पाये ?" तब मैंने भी विचार किया कि सद्भावपूर्वक रखे गये मित्र की धरोहर को कस प्रकट करूं। कदाचित् उसने इसी प्रकार (धरोहर के रूप में) प्राप्त न किया हो, अत: अपने प्राणों को मूल्यवान मानकर कैसे मित्र के प्राणों को त्यागू-"ऐसा विचारकर मैंने कहा, "यह अपना ही है।" उन्होंने कहा, "चन्दन नाम कैसे पड़ा है" मैंन कहा, "नहीं जानता हूँ। हो सकता है बर्तन किसी प्रकार बदल गया हो।" उन्होंने कहा, “सोने की कितनी वस्तुएँ यहाँ हैं ?" मैंने कहा, "मुझे भलीभाँति स्मरण नहीं है, स्वयं ही देख लो।" नगररक्षक राज्याधिकारियों ने कहा, "पत्र पढ़ो, चन्दनव्यापारी का पात्र कितने धन से युक्त है।" पत्र बाँचा गया-दश हज़ार दीनारें उसमें लिखी हुई थीं। तब बर्तन को कब्जे में लिया गया। पत्र में लिखी बातें मिल गयीं। नगरवासी और जांच अधिकारी १, कारिणिहिं-च। २. मएण विय तणावि कहंचि-कहिवि-च। ३. सयं-ख। ४. छोडावियमणेहिं वासणं-च ।
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