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[ समराइच्चकहा
स बहुमाणं -- भो सत्थवाहपुत्त ! जुत्तं नाम भवओ मए वि पुच्छियस्स सम्भावासाहणं ? तओ भए चितियं - हन्त किमेयं ति, पयामियं भविस्सइ केणइ मित्तगुज्झं । एत्थंतरम्मि य भणियं राइणाभो सत्थवाहपुत्त ! साहिओ मम एस वइयरो अम्बं पविसिऊण भयवईए नयरदेवयाए, जहा निद्दोसो तुमं, दोसयारी य एत्थ दुरायारो जन्नदेवो । ता खमियन्वं तुमए, जं मए अमुणियपरमत्थेणं कयथिओसिति । तओ मए 'हन्त संपत्तो वसणं जन्नदेवो' त्ति चितिऊण भणिओ राया-देव ! रायधम्मोऽयं, पयापरिरक्खणसमुज्जयस्स नत्थि दोसो देवस्स । जन्नदेवमूलसुद्धि पि गवेसेउ देवो, न तस्मि महाणुभावे अणायरणं संभावीयइ । राइणा भणियं-गविट्ठा मूलसुद्धी, साहियं भयवईए'सव्वमिगं तेण पावेण ववसियं' ति । साहियं देवयाकहियं राइणा । ठियं च मे चित्ते तुह दोसपयासणेणं ति भणिऊण साहिओ जन्नदेवकहियवृत्तंतो । तओ मए चितियं-हंत किमेयं असंभावणिज्जं । एत्थंतरम्मिय आणिओ रायपुरिसेहिं बंधेऊण जन्नदेवो, निवेइओ राइणो । भणियं च तेण - अरे एयस्स जिन्भं छिंदिऊण उप्पाडेह लोवणाई । विसण्णो जन्नदेवो । तओ मए चरणेसु निर्वाडिउण
मयाऽपि पृष्टस्य सद्भावाऽकथनम् ? ततो मया चिन्तितम् - हन्त किमेतदिति प्रकाशितं भविष्यति केनचिद् मित्रगुह्यम् । अत्रान्तरे च भणितं राज्ञा - भोः सार्थवाहपुत्र ! कथितो मम एष व्यतिकरो - Sम्बां प्रविश्य भगवत्या नगरदेवतया, यथा निर्दोषस्त्वम्, दोषकारी च अत्र दुराचारो यज्ञदेवः । ततः क्षमितव्यं त्वया, यन्मया अज्ञातपरमार्थेन कदर्थितोऽसीति । ततो मया 'हन्त सम्प्राप्तो व्यसनं यज्ञदेवः' इति चिन्तयित्वा भणितो राजा - देव ! राजधर्मोऽयम्, प्रजापरिरक्षणसमुद्यतस्य नास्ति दोषो देवस्य । यज्ञदेवमूलशुद्धिमपि गवेषयतु देवः, न तस्मिन् महानुभावे अनाचरणं सम्भाव्यते । राज्ञा भणितम् - गवेषिता मूलशुद्धिः कथितं भगवत्या - सर्वमिदं तेन पापेन व्यवसितम्' इति । कथितं देवताकथितं राज्ञा । स्थितं च मे चित्ते तव दोषप्रकाशनेन इति भणित्वा कथितो यज्ञदेवकथितवृत्तान्तः । ततो मया चिन्तितम् - हन्त किमेतदसम्भावनीयम् । अत्रान्तरे चानीतो राजपुरुषवा यज्ञदेव, निवेदितश्च राज्ञः । भणितं च तेन - अरे एतस्य जिह्वां छित्वा उत्पाटयत लोचने । विषण्णो यज्ञदेवः । ततो मया चरणयोर्निपत्य विज्ञप्तो राजा - देव ! ममैषोऽपराधः क्षम्यताम्,
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यह सोचकर राजा से । यज्ञदेव के मूल कारण
था ?" तब मैंने सोचा, 'हाय यह क्या ? किसी ने मित्र की गोपनीय बात को प्रकट कर दिया !' इसी बीच राजा ने कहा, 'हे वणिक्पुत्र ! नगर की देवी ने प्रवेश कर माता द्वारा इस घटना के विषय में कहा, जिससे मुझे ज्ञात हुआ कि तुम निर्दोष हो और यज्ञदेव दुराचारी है । अतः वास्तविकता को न जानकर जो मैंने तुम्हारा अपमान किया उसे क्षमा करो।" तब मैंने 'हाय यज्ञदेव आपत्ति में पड़ गया कहा, 'महाराज ! यह राजधर्म है, प्रजा की रक्षा में उद्यत राजा का (कोई) दोष नहीं है की भी विशद खोज कर लें, उस महानुभाव के द्वारा अनाचार किये जाने की सम्भावना नहीं है ।" राजा ने कहा, "मूल कारण की विशद खोज कर ली है। भगवती ने कहा है सब कुछ उस पापी ने निश्चित किया ।" राजा ने देवी द्वारा कही गयी बात बतायी। मेरे चित में था कि तुम्हारे दोषों के प्रकाशन के लिए यज्ञदेव ने यह सब किया है" – ऐसा कहकर यज्ञदेव द्वारा कहे गये वृत्तान्त को कहा। तब मैंने विचार किया - 'हाय ! यह क्या असम्भव बात है ?' इसी बीच राजपुरुष बाँधकर यज्ञदेव को लाये और राजा से निवेदन किया । उसने कहा, "अरे इसकी जीभ छेदकर दोनों नेत्र उखाड़ लो ।” यज्ञदेव दुःखी हुआ । तब मैंने चरणों में पड़कर राजा से
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