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पढमो भयो !
भयवंतो सज्झायवावडा, वंदिया पहट्टवयणपंकएण, अहिणंदिओ भयवंतेहिं धम्मलाहेण । पुच्छिया म अहाविहारं । अणुसासिओ भयवंतेहिं । तओ ते मुणी कंचि वेलं पज्जुवासिय पचिट्ठो नयरं । ते य भयवंतो सव्वकालमेव वासावासे मासोववासेणं जयंति त्ति । उवलद्धं मए सम्मत्तं । पवड्ढमाणसड्ढस्स य पइदिणं सेवमाणस्स मे अइक्कंता चत्तारि मासा । चरिमरयणीए जाया महं चिंता । कल्लं खु ते महातवस्सी गच्छिस्संति । तओ अहं अद्धजामावसेसाए रयणीए निग्गओ भयवंतदंसणनिमित्तं नयराओ । गओ य थेवं भूमिभागं, जाव पर्यालिया वसुमई, गज्जियं गंधारगिरिणा पवाइओ सुरहिमारुओ, उज्जोवियं नहंगणं, वित्थरिओ जयजयारवो ।
तओ अहं अब्भहियजायहरिसो तुरियं तुरियं पत्थिओ जाव पेच्छामि गंधारगिरिगुहासमीवे, अवहरियं तणाइयं, समीकयं धरणिवट्ठ, पवुट्ठ गंधोदयं, उवडण्णा पुष्फोवयारा, निर्वाडया देवसंघाया थुति भयवंते साहूणो । अहो ! मे सुलद्धं माणुसत्तणं खविया रागादओ, पराजिय'
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दृष्टाश्च तत्र भगवन्तः स्वाध्यव्यापृताः वन्दिताः प्रहृष्टवदनपङ्कजेन । अभिनन्दितो भगवद्भिः धर्मलाभेन । पृष्टा मया यथाविहारम् । अनुशासितो भगवद्भिः । ततस्तान् मुनीन् कांचिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरम् । ते च भगवन्तः सर्वकालमेव वर्षावासे मासोपवासेन यतन्ते इति उपलब्धं मया सम्यक्त्वम् । प्रवर्द्धमानश्रद्धस्य च प्रतिदिनं सेवमानस्य मम अतिक्रान्ताश्चत्वारो मासाः । चरमरजन्यां जाता मम चिन्ता । कल्यं खलु ते महातपस्विनः गमिष्यन्ति । ततोऽहं अर्धय । मावशेषायां रजन्यां निर्गतो भगवद्दर्शननिमित्तं नगराद् । गतश्च स्तोकं भूमिभागम्, यावत् प्रचलिता वसुमतिः, गर्जितं गान्धारगिरिणा प्रवाहितः सुरभिमारुतः, उद्योतितं नभोऽङ्गणं, विस्तरितो
जयजयारवः ।
ततोऽहम् - अभ्यधिकजातहर्षः त्वरितं त्वरितं प्रस्थितो यावत् प्रेक्षे गान्धारगिरि-गुहासमीपे, अपहृतं तृणादिकम्, समीकृतं धरणिपृष्टम्, प्रवृष्टं गन्धोदकम् उपकीर्णाः पुष्पोपचाराः, निपतिता देवसंघाताः स्तुवन्ति भगवत साधून् । अहो भवद्भिः सुलब्धं मनुष्यत्वम्, क्षपिता रागादयः, पराजितं
वहाँ पर स्वाध्याय में लगे हुए उन मुनियों के दर्शन किये । हर्ष से कमल की तरह प्रसन्न होकर मैंने उनकी वन्दना की। मुनियों ने धर्मलाभ देकर अभिनन्दन किया । मैंने उनसे मार्ग पूछा । मुनियों ने उपदेश दिया । तब उन मुनियों की कुछ समय तक उपासना कर मैं नगर में प्रविष्ट हुआ। वे भगवन्त वर्षावास में मासोपवास का यत्न करते थे अतः मुझे उन पर श्रद्धा हो गयी। मेरी श्रद्धा बढ़ती गयी। उनकी प्रतिदिन सेवा करते हुए चार माह व्यतीत हो गये । रात्रि के अन्तिम प्रहर में मुझे चिन्ता हुई । वे महातपस्वी कल विहार कर जायेंगे । अतः जब रात्रि का आधा पहर ही शेष रह गया, तब मैं भगवद् दर्शन के निमित्त नगर से निकला। कुछ ही दूर गया था कि पृथ्वी प्रकम्पित हो उठी । गान्धारगिरि ने गर्जन किया । सुगन्धित वायु चलने लगी । आकाशरूपी आँगन प्रकाशित हो उठा तथा 'जय जय' शब्द फैलने लगा ।
तब अत्यधिक आनन्दित होकर मैं जल्दी-जल्दी चलने लगा । तब मैंने गान्धार गुफा के समीप देखा कि तृणादिक दूर कर दिये गये हैं, धरातल समतल बना दिया गया है गन्धोदक की वर्षा हो रही है, फूलों के समूह बिखेर दिये गये हैं तथा स्वर्गलोक से उतरे हुए देवों के संघ पूज्य साधुओं की स्तुति कर रहे हैं । अहो ! आपन श्रेष्ठ मनुष्य जन्म पाया है, रागादिक को नष्ट कर दिया है, कर्मरूपी सेना को पराजित कर दिया है, संसाररूपी
१. पराजियं ।
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