________________
[ समराइच्चा
एवं वित्ते विवाहमहूसवे कालककमेण पवड्ढमाणाणुरायं संयलजणसलाहणिज्जं विसयसुहमहवंताणं अइकंता अणेगे वरिसलक्खा । अन्नया य आसपरिवाहणनिमित्तं गएण कुमारसीहेण दिट्ठो नागदेवज्जाणे बहुफासुए पएसे अणेयसमणपरिवारिओ खमा-मद्दव-ज्जव मुत्ति-तव-संजम सच्चसोया - किंचण बंभचेरगुणनिही पढमजोव्वणत्यो रुवाइगुणजुत्तो संपुण्णवालसंगी ससिस्साणं सुत्तस्स अत्थं कहेमाणो धम्मघोसो नाम आयरिजो त्ति । तओ तं दट्टूण तं पइ अईव बहुमाणो जाओ । चितियं च णेण । धन्नो खु एसो, जो संसारविरत्तभावो सयलसंगचाई परमपरोवयारनिरओ एवं वटुइ ति । ता गंतून एयस्स समीवं पुच्छामि एयं - कि पुणे इमस्स मणोहवल लियस मयवत्तिणो निच्dयकारणं जहट्टियं च दुक्खसंकुलं च संसारं ति । तओ दूराओ चेव ओयरिऊण जच्चवोल्लाहकिसोराओ गओ तस्स समीवं । पणमित्रो य धम्मघोतो । अहिनंदिओ व भगवया धम्मलाहेण । तओ बंदिऊ सेससाहुणो भत्तिनिब्भरमुवविट्ठो सहावसुंदरे गुरुणो पायमूले । निव्वडियसंवेगसारं पुच्छिओ य णेण भयवं धम्मघोसो | भयवं ! किं ते सयलगुणसंपयाकुलहरस्स वि ईइसो निव्वेओ,
१०२
एवं वृत्ते विवाहमहोत्सवे कालक्रमेण प्रवर्धमानानुरागं सकलजनश्लाघनीयं विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ता अनेक वर्ष लक्षाः । अन्यदा चाश्वपरिवाहननिमित्तं गतेन कुमारसिंहेन दृष्टो नागदेवोद्याने बहुप्रासु प्रदेशेऽनेकश्रमणपरिवारितः क्षमा मार्दवा ऽऽर्जव - मुक्ति तपः संयम सत्य - शौचाssfer- ब्रह्मचर्य गुणनिधिः प्रथमयौवनस्थो रूपादिगुणयुक्तः सम्पूर्णद्वादशाङ्गी स्वशिष्येभ्यः सूत्राणामर्थं कथयन् धर्मघोषो नामाचार्य इति । ततस्तं दृष्ट्वा तं प्रति अतीव बहुमानो जातः । चिन्तितं तेन - धन्यः खल्वेषः यः संसारविरक्तभावः सकल सङ्गत्यागी परमपरोपकारनिरत एवं वर्तते इति । तस्माद् गत्वा एतस्य समीपं पृच्छामि एतत् किं पुनरस्य मनोभवललितसमयवर्तिनो निर्वेदकारणं यथास्थितं च दुःखसंकुलं च संसारमिति । ततो दूरादेव अवतीर्य जात्याश्वकिशोराद् गतः तस्य समीपम् । प्रणतश्व धर्मघोषः । अभिनन्दितश्च भगवता धर्मलाभेन । ततो वन्दित्वा शेषसाधून् भक्ति निर्भरमुपविष्टः स्वभावसुन्दरे गुरोः पादमूले । निर्वर्तितसंवेगसारं पृष्टश्च तेन भगवान् धर्मघोषः । भगवन् ! किं ते सकलगुणसम्पत्कुल गृहस्यापि ईदृशो निर्वेदः, येनेदमकाले एव श्रमणत्वं
इस प्रकार विवाह महोत्सव होने पर कालक्रम से उन दोनों का अनुराग परस्पर बढ़ रहा था। समस्त लोगों द्वारा प्रशंसनीय विषयसुख का अनुभव करते हुए उनके अनेक लाख वर्ष व्यतीत हो गये । एक बार घोड़े को चलाने के निमित्त नागदेव नामक उद्यान में गये हुए कुमारसिंह ने धर्मघोष नामक आचार्य को देखा । अत्यन्त स्वच्छ जीवजन्तुओं से रहित स्थान पर अनेक मुनियों से वे धिरे हुए थे । क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (त्याग), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि गुणों के वे सागर थे । प्रथम यौवन में स्थित रूपादि गुण से युक्त अवस्था वाले सम्पूर्ण द्वादशांग के जानकार वे अपने शिष्यों से सूत्रों का अर्थ कह रहे थे । उन्हें देखकर उनके प्रति ( उसके मन में) अत्यधिक सम्मान हुआ । उन्होंने सोचा -- ये धन्य हैं जो कि इस प्रकार संसार से विरक्त होकर, समस्त परिग्रह का त्यागकर इस प्रकार उत्कृष्ट परोपकार में रत हैं । अतः इनके समीप जाकर पूछता हूँ — आप कामदेव के इस सुन्दर समय में स्थित हैं फिर भी विराग का क्या कारण है और दुःखपूर्ण संसार का वास्तविक स्वरूप क्या है ? तब नये वोल्लाह नामक देश विशेष में उत्पन्न घोड़े से दूर से ही उतरकर उनके समीप गया। धर्मघोष को प्रणाम किया। भगवान ने धर्मलाभ देकर उसका अभिनन्दन किया। तब शेष साधुओं की वन्दना कर स्वभाव से सुन्दर गुरु के चरणों में भक्ति से युक्त होकर बैठ गया । निर्भीक होकर उसने भगवान् धर्मघोष से पूछा, "भगवन्! समस्त सम्पदा और कुलगृह से इस प्रकार विरक्त होने का क्या कारण है जिससे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org