________________
ज
पीओ भवो]
न य कदुएण कोलइ बहुमन्नइ नेय भूषणकलावं । हरिणिव जूहभट्ठा अणुसरमाणी तयं चेव ॥१२५॥ खणरुद्धनयणपसरा अवसाखणधरियदीहनीसासा।। खणरुद्धदेहचेट्ठा खणजंपिरवायमुहकमला ॥१२६॥ एत्थंतरम्मि तीसे धावीए नियसुया समाणत्ता।
नामेण मयणलेहा बीयं हिययं व जा तीए॥१२७॥ जहा कोलासुदरुज्जाणगमणकोलाए दढं परिस्संता कुसुमावली लहुं च तीए अज्ज विसज्जियाओ सहीओ, तां गिण्हिऊण पविरलजलसित्तं तालियंट बंधेऊण कइवयकप्पूरवोडगाणि उवसप्पाहि एयं ति । समारसाणंतरं च संपाइयजणगिवयणारसंतमणिनेउरा पत्ता कुसुमावलोसमीवं सहरिसामयणलेहा । दिट्ठा य तीए वरसयणीयमझ गया गुरुचिताभरनीसह अंगं वहंती कुसुमावली त्ति । तो अणालवणमुणियसुन्नभावाए' विन्नत्ता मयणलेहाए-सामिणि, किमेवमुविग्गा विय लक्खीअसि,
न च कन्दुकेन क्रीडति बहुमन्यते नैव भूषणकलापम् । हरिणीव यूथभ्रष्टा अनुसरन्ती तं चैव ॥१२५॥ क्षणरुद्ध नयनप्रसरा अवशाक्षणधृतदीर्घनिःश्वासा। क्षणरुद्धदेहचेष्टा क्षणकथयितम्लानमुखकमला ।।१२६॥ अत्रान्तरे तस्या धात्र्या निजसुता समाज्ञप्ता।
नाम्ना मदनलेखा द्वितीयं हृदयं वा तस्याः ॥१२७।। यथा क्रीडा सुन्दरोद्यानगमनक्रीडाया दृढं परिश्रान्ता कुसुमावलो लघु च तयाऽद्य विसर्जितः सख्यः तस्मात् गृहीत्वा प्रविरलजलसिक्तं तालवृन्तं बद्धवा कतिपयकर्पूरवोटकानि उपसर्य एतामिति । समादेशानन्तरं च सम्पादितजननीवचना रसन्मणिनपुरा प्राप्ता कुसुमावली समीपं सहर्षा मदनलेखा। दृष्टा च तया वरशयनीयमध्यगता गुरुचिन्ताभरनिःसहमङ्ग वहन्ती कुसुमावली इति । ततोऽनालपनज्ञातशून्यभावया विज्ञप्ता मदनलेखया-स्वामिनि ! किमेवं उद्विग्ना इव लक्ष्यसे,
न गेंद खेलती थी, न ही आभूषणों का आदर करती थी। समूह से बिछुड़ी हुई हरिणी के समान उसी का स्मरण करती थी। क्षणमात्र के लिए उसके नेत्रों का विस्तार रुक जाता था, क्षणमात्र में वह अधीर हो लम्बे सांस लेने लगती। क्षणभर के लिए उसके शरीर की चेष्टाएँ रुक जाती थीं। क्षणभर में म्लानमुखकमल हो बातें करने लगती। इसी बीच उसकी धाय ने अपनी पुत्री, जिसका नाम मदनलेखा था और जो उसका दूसरा हृदय थी, को आज्ञा दी ॥१२५-१२७।। ... “क्रीडासुन्दर उद्यान में गमन करने तथा क्रीडा करने से कुसुमावली बहुत थक गयी है और आज उसने सखियों को जल्दी विदा कर दिया है अत: थोड़ा जल सींचे हुए ताड़ के पंखे को लेकर कुछ कपूरयुक्त पान के बीडे बांधकर उसके समीप जाओ।" आज्ञा के अनन्तर माता के वचन मानकर, मणिनिर्मित नपरों का शब्द करती हुई मदनलेखा हर्षयुक्त हो कुसुमावली के पास आयी। उसने श्रेष्ठ शय्या के मध्य अत्यधिक चिन्ता समूह को न सह सकने वाली देह को धारण करती हुई कुसुमावली को देखा। अनन्तर न बोलने के कारण शून्यभाव को १. अनालपता ज्ञातशून्यभावया 'मुणिय' ज्ञातः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org