________________
वीमो भयो] हला ! पियंकरिए ! तुमं चेवऽत्थ कुसला, ता निवेएहि, किं मए एयस्स कायव्यं ति । तीए भणियं'सामिणि ! पढमागयाओ अम्हे ; ता अलंकरावीयउ आसणपरिग्गहेणं इमं पएस एसो, कीरउ से सज्जणजणाण संबंधपायवबीयभूयं सागयं, दिज्जउ से सहत्थेण कालोचियं वसंतकुसुमाभरणसणाहं तम्बोलं ति।' कुसमावलीए भणियं-'हला ! न सक्कुणोमि अइसज्भसेण इमं एयस्स काउं; ता तुमं चेव एत्थ कालोचियं करेहि त्ति ।' एत्थंतरम्मि य पत्तो तमद्देसं कुमारो। तओ सज्जिऊणासणं भणिओ पियंकरीए-'सागयं रइविरहियस्स कुसुमचावस्स, इह उवविसउ महाणुभावो । तओ सो सपरिओसं ईसि विहसिऊण 'आसि य अहं एत्तियं कालं रइविरहिओ, न उण संपयं' ति भणिऊणमुवविट्ठो। उवणीयं च पियंकरियाए माहवीकुसुममालासणाहं कलधोयमयतलियाए तंबोलं, गहियं च तेण। एत्यंतरम्मि य आगओ कुसुमावलीजणणीए आहवणनिमित्तं पेसिओ संभरायणो नाम कन्नतेउरमहल्लगो। दिट्ठा य तेण साणुरायं अपेच्छतमद्धच्छिपेच्छिएहिं कुमारमवलोएंती कुसुमावली । चितियं च णेण-समागओ मयणो रईए जई विही अणुवत्तिस्सइ। तओ पच्चासन्नमागंतूण कुमारमहिणंदिय भणियं संभरायणेणं । वच्छे ! कुसमावलि, देवी मत्तावली आमवेइ अइचिरं तावत निवेदय, कि मया एतस्य कर्तव्यमिति । तया भणितम्-'स्वामिनि ! प्रथमागता वयं; तस्माद् अलंकार्यतामासनपरिग्रहेण इमं प्रदेशं एषः, क्रियतां तस्य सज्जनजनानां सम्बन्धपादपबीजभतं स्वागतम्, दीयतां तस्य स्वहस्तेन कालोचितं वसन्तकुसमाभरणसमाथं ताम्बूलमिति ।' कुसुमावल्या भणितम्-'सखि ! न शक्नोमि अतिसाध्वसेनेदमेतस्य कर्तुम् । तस्मात् त्वमेवात्र कालोचितं करु इति ।' अत्रान्तरे च प्राप्तस्तमुद्देश कुमारः । ततः सज्जित्वाऽऽसनं भणितः प्रियङ्कर्या-'स्वागत रतिविरहितस्य कुसमचापस्य, इह उपविशतु महानुभावः' । तत: स सपरितोषं ईषद् विहस्य 'आसं चाहं एतावन्तं कालं रतिविरहितो, न पुनः साम्प्रतम्' इति भणित्वोपविष्टः। उपनीतं च प्रियङ्का माधवीकुसुममालासनाथं कलधौतमयतलिकायां (सुवर्णमयभाजनविशेषे) ताम्बूलम्, गहीतं च तेन । अत्रान्तरे च आगतः कुसुमावली जनन्या आह्वाननिमित्तं प्रेषितः सम्भरायणो नाम कन्यान्तःपुरमहल्लकः । दृष्टा च तेन सानुरागमपश्यन्तम क्षिप्रेक्षितैः कुमारमवलोकयन्ती कसुमावली। चिन्तितं च तेन-समागतो मदनो रत्या यदि विधिरनुवतिष्यते। ततः प्रत्यासन्नमागत्य पुलकित अंगों वाली इसने विलास और अभिलाषा के साथ कुमार को देखकर कहा, "सखि प्रियंकारिके ! इस विषय में तुम ही निपुण हो, अतः कहो इसके विषय में मेरा क्या कर्त्तव्य है ?" उसने कहा, "स्वामिनि ! हम लोग पहले आये हैं अतः यह आसन स्वीकार कर इस स्थान को अलंकृत कर; उसका सज्जन व्यक्तियों के सम्बन्ध का बीजभूत स्वागत करें। उसे अपने हाथ से समयोचित वसन्तकालीन पुष्परूपी आभरण से युक्त पान दें।" कुसुमावली ने कहा, "सखि ! अत्यन्त घबड़ाहट के कारण इसके प्रति मैं यह कार्य नहीं कर सकती हूँ। अता तुग ही यहां पर समयोचित कार्य करो।" इसी बीच उस स्थान पर कुमार आ गया। तब आसन को सज्जित कर प्रियंकरी ने कहा, "रति से बिछुड़े हुए कामदेव का स्वागत है। महानुभाव यहाँ पर बैठे।" तब सन्तोष के साथ मुसकराकर, "अभी तक मैं रति से बिछुड़ा था। अब बिछुड़ा नहीं हूँ" ऐसा कहकर बैठ गया। प्रियंकरी ने माधवी पुष्प की माला से युक्त पान को सोने की तस्तरी में भेंट किया। राजकुमार ने उसे ग्रहण किया। इस बीच कुसुमावली की माता द्वारा उसे बुलाने के लिए भेजा गया कन्याओं के अन्तःपुर का सम्भरायण नामक वृद्ध सेवक आ गया। उसने आधी आँख से कुमार, जो उधर नहीं देख रहा था, का अवलोकन करती हुई कुसुमावली को देखा। उसने सोचा यदि विधाता साथ देता है तो कामदेव का रति से समागम हो गया। अनन्तर समीप आकर कुमार का अभिनन्दन कर सम्भरायण ने कहा, "पुत्री कुमुमावली, महारानी मुक्तावली आज्ञा देती हैं कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org