________________
१२
[ समराइचकहा महारायउत्तो आणवेइ' त्ति भणिऊण पणामपुव्वयं निग्गया मयणलेहा, पत्ता य कुसुमावलीसमीवं । आइक्खिओ तीए जहावत्तो वुत्तंतो, समप्पियं नागवल्लीदलं, दिट्ठो य कुसुमावलीए वरहंसओ, वाइया य गाहा, परितुट्ठा हियएणं ।
___ एवं च पइदिणं मयणसरगोयरावडियजणमणाणंदयारेहि विज्जाहरी-चक्कवाय-महुयरपमुहचित्तपओयपेसणेहिं पवड्ढमाणाणुरायाणं जाव वोलेन्ति थेवदियहा, ताव राइणो पुरिसदत्तस्स पत्थणामहग्धं दिन्ना लच्छिकंतनरवइणा कुमारसीहस्स कुसुमावलि त्ति। निवेइयं च एवं पियंकरियाए कुसुमावलीए । जहा
दिन्ना सोहकुमारस्स सुयणु सि? य वहलपुलयाए।
अंगेसु परिओसो मयणो व्व वियम्भिओ तिस्सा ॥१३१॥ एत्थंतरंमि य अथिनिवहसमीहियभहियदिन्नदविणजायं वजंतमंगलतूररवापूरियदिसामंडलं नच्चंतवेसविलयायणुप्पंकबद्धसोहं सयलजणमणाणंदयारयं दोहिं च नरिंदेहि कयं वद्धावणयं ति । आज्ञापयति' इति भणित्वा प्रणामपूर्वकं निर्गता मदनलेखा, प्राप्ता च कुसुमावलीसमीपम । आख्यातस्तया यथावृत्तो वृत्तान्तः, समर्पितं नागवल्लीदलम् । दृष्टश्च कुसुमावल्या वरहंसः, वाचिता च गाथा, परितुष्टा हृदयेन ॥
एवं च प्रतिदिनं मदनशरगोंचरापतितजनमनआनन्दकारैविद्याधरी-चक्रवाक-मधुकरप्रमखचित्रप्रयोगप्रेषणैः प्रवर्धमानानुरागयोर्यावदतिक्रामन्ति स्तोकदिवसाः, तावद् राज्ञः पुरुषदत्तस्य प्रार्थनामहाघ दत्ता लक्ष्मीकान्तनरपतिना कुमारसिंहस्य कुसुमावलीति । निवेदितं चैतत् प्रियङ्कर्या कुसुमावल्याः । यथा
दत्ता सिंहकुमारस्य सुतनो! शिष्टे च वहलपुलकायाः ।
अङ्गेषु परितोषो मदन इव विजृम्भितस्तस्याः ॥१३१॥ अत्रान्तरे च अथिनिवहसमीहिताभ्यधिकदत्तद्रविणजातं वाद्यमानमङ्गलतूर्यरवापूरितदिग्मण्डलं नत्यद्वेश्यावनिताजनोत्पङ्क (समूहः) बद्धशोभं सकलजनमनआनन्दकारकं द्वाभ्यां च नरेन्द्राभ्यां कृतं वर्धापनकमिति । तब 'राजकुमार जैसी आज्ञा दें' कहकर प्रणामपूर्वक मदनलेखा निकल गयी। कुसुमावली के पास पहुंची। उसने घटित हुआ वृत्तान्त कहा, पान के पत्ते को समर्पित किया। कुसुमावली ने राजहंस को देखा तथा गाथा बाँची । हृदय से सन्तुष्ट हुई।
इस प्रकार प्रतिदिन कामदेव के बाणों के मार्ग में आये हुए लोगों के मन को आनन्द देनेवाले विद्याधरी, चकवा, भौंरा आदि प्रमुख चित्रों के सम्प्रेषण से जब उनका परस्पर अनुराग बढ़ रहा था तब कुछ दिन बीत जाने पर राजा पुरुषदत्त की बहुमूल्य प्रार्थना पर लक्ष्मीकान्त राजा ने सिंहकुमार को कुसुमावली दे दी। प्रियंकरी ने कुसुमावली से यह निवेदन किया
"हे सुन्दरी ! तुम सिंहकुमार को दी गयी हो।" यह कहे जाने पर अत्यधिक रोमांचों वाले उसके अंगों में कामदेव के समान सन्तोष बढ़ा ।१३१॥
इसी बीच दोनों राजाओं ने समस्त मनुष्यों के नेत्रों को आनन्द देने वाला बधाई का उत्सव किया। उस समय याचकों के समूह को इच्छा से भी अधिक धन दिया जा रहा था, बजाये जानेवाले मंगल वाद्यों से दिशामण्डल व्याप्त हो रहा था तथा नाचती हुई वेश्याओं के समूह से शोभा बढ़ गयी थी।
Tr
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org